भक्त अर्थात भगवत् रूप
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मेरे मन ! तू चातक सा राह देख रहा है, उस करुणाघन के आने की, उसकी पीयूष वर्षा की, परन्तु मेरे मन सावधान रह, संयम रख, क्षण क्षण बढ़ती मुमुक्षा की दाहकता को सहन करता चल | विचलित न हो, दाह से भयभीत न हो, वृथा गरजने बाले, लोभ से तुम्हे डिगाने बाले, कुछ छद्म शीतलता प्रदान करने बाले, रिद्धि सिद्धि की वर्षा करने बाले बादलों की बूँद को अपनी चंचु से ग्रहण करना - तेरी साधना को नष्ट कर देगा - और वह करुनाघन जब आएगा - तेरी तृषा की तीव्रता लुप्त हो चुकी होगी - और वह जो कृपा वर्षा करेगा - तेरी भूल से वह अनबूझे ही गुजर जायेगी और तू वंचित रह जाएगा | उस वंचना से बचने के लिए - सावधानी से, द्रढता से, संयम पूर्वक, तृषा के बढ़ते ताप को सहता चल मेरे मन | तन की आस छोड़ मेरे मन और उस आत्मन का आश्रय ले, परमात्मन अवश्य मिलेंगे और तुझे तृप्त करेंगे !
मेरे मन ! तन तेरा आवरण है, वस्त्र है | यह तेरा सर्वस्व नहीं है | यह तन बिखरने ही बाला है, आज नहीं तो कल इसे छोड़ना ही होगा | अतएव इसके सुख दुखों से परे हो जा मेरे मन | मेरे मन इसके सुख दुखों से परे होकर अपनी वास्तविकता को पहचान | इस तन मन रहकर तू, इन्द्रियमय हो - सुख दुखों का आस्वादन करता है | इन्द्रियाँ नहीं करती | वे तुम्हारे अधीन हैं, परन्तु तुम भ्रम वश उनके वश में हो जाते हो और सुख दुःख भोगते हो और करुनाघन की कृपा से वंचित हो जाते हो , ताप के भय से, तृप्ति के लोभ से | इन दोनों से परे उठो मेरे मन और तुम्हारे परे, तुम्हारी नियंता आत्मा की निर्विकारिता में शरण गहो | वह तुम्हें विवेक द्वारा सलाह देगा | उस सलाह पर चलकर, द्रढ़ता से खड़े रहो और अपने आप को विलीन कर दो उस परमात्मा की ज्योति मैं - जिसकी तुम किरण हो | उसी में तुम्हारा कल्याण है | मेरे मन ! उसके प्रति पूर्ण समर्पण ही भक्ति की अतिआवश्यक शर्त है | उसे पूर्ण करने के लिए - संकल्पित हो - मेरे मन | संकल्प ही तुम्हारा बल है !
मेरे मन ! सदा सत्संकल्पमय बनो | सत केवल वही है, जो परात्पर, विभु है | अतएव उस सत स्वरुप - प्रभु में घुल मिल जाने का, तदाकार, तद्रूप, तन्मय हो जाने का संकल्प ही एकमेव सत्संकल्प है, मेरे मन | संकल्प करने का अर्थ है, उसकी पूर्ती के लिए, अपना सर्वस्व लगा देना | तन की सम्पूर्ण कर्म शक्ति, तन द्वारा किया जाने बाला प्रत्येक कर्म, इस तन को, इस जगत में व्याप्त आयु, उस आयु का प्रत्येक क्षण, उस सत्संकल्प की पूर्ती में लगाने से ही उसकी पूर्ती संभव है | अतएव मेरे मन | क्षण क्षण उसी सत - चित - आनंद - की इच्छा के अधीन कर्म रत रह, और उसका सब कुछ उसको समर्पित करता चल | भक्ति कर्म मयि होती है, मेरे मन | निष्काम कर्म मयि भक्ति ही - प्रभु प्रसाद की दात्री है मेरे मन |
मेरे मन ! निष्काम कर्म मय जीवन भक्तिमय जीवन है | निष्काम होना भक्ति का एक लक्षण है | लोग भक्ति करते हैं, परन्तु कामना भी करते हैं कि भगवान, उनकी भक्ति के परितोष के रूप में उन्हें जीवन में शान्ति, यश, कीर्ति, सुख, संपत्ति, यहाँ तक कि, स्वयं भगवान प्रस्तुत होकर, भुक्ति, मुक्ति प्रदान करें | इस प्रकार प्रतिफल के भाव से की गई भक्ति - प्रभु से एक भांति किया गया प्रच्छन्न सौदा है | इस सौदे हेतु किये गए कर्म, निष्काम कर्म कैसे कहलायेंगे मेरे मन ? अतएव प्रभु के लिए, उसकी स्फुरण से किये जाने बाले कर्म - फिर वे करते हुए - अपयश, अपकीर्ति, दुःख आपदा - जो भी आवे उन्हें प्रभु की अनंत कृपा जानकर, आनंद पूर्वक स्वीकार करना और उसकी सेवा में जुटे रहना - भुक्ति मुक्ति की भी इच्छा न करना, उसे सदा सर्वत्र अनुभव करना ही निष्काम कर्म होता है | मेरे मन जिसने निष्काम कर्म का पथ पहचान लिया और उस पर अविचल रहा - वही प्रभु का सच्चा भक्त है |
मेरे मन सच्चा भक्त होना तब ही संभव है, जब तुम निष्काम हो जाओगे | जब तुम्हे काम अर्थात चाह नहीं रहेगी, परन्तु काम याने कर्म तुम करते ही रहोगे | काम करते समय उसके फल की अपेच्छा से सर्वथा दूर रहोगे, तथा उस कर्म का कर्ता, उसी को जानोगे जिसने तुम्हे जन्म दिया है, और म्रत्यु के उपरांत तुम्हे अपने आप में समा लेता है | आने के पूर्व और जाने के बाद, तुम जहां थे और होओगे, वहीं, उसीकी विराट शक्ति लीला में तुम अभी भी हो | उससे तुम कभी विभक्त नहीं हो, एसा जब तुम्हे बोध होगा - विभक्तता का अज्ञान दूर होगा | तभी तुम सच्चे भक्त अर्थात भगवत् रूप होगे | मेरे मन !
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चिकटे जी
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