है दीन दुखी से प्रेम तो, सर जगन्नाथ का हाथ
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सम्मुख गाजर लटकी दिखती, कोल्हू बैल घूमता है !
आशा पाश, वासना बंधन मन अनजान डूबता है !!
हाथ सुमिरनी घूमे जिव्हा, राम नाम रटती जाती है !
विष विषयों का पीते पीते, आयु वृथा घटती जाती है !!
मृग मरीचिका के तडाग से, प्यास नहीं बुझती प्यारे |
सांसारिक सुख मिलें घनेरे, आस नहीं रुकती प्यारे !!
क्षुधा वित्त की, तृषा कीर्ति में जीवन खोता !
आत्मरूप का ज्ञान लक्ष्य जीवन धन होता !!
जप. माला, छापा, तिलक भक्ति इनसे भिन्न !
भले कहे जग भगत जी, प्रभू ढोंग से खिन्न !!
प्रभु हाथों में सोंप दें, मन की ये पतवार !
बाहर भीतर एक हो, कर्ता हो करतार !!
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दुई न समाये !
आनंद नृत्य ही शर्त है, जैसे प्रभु नचाये !!
हम उसकी इच्छा बुलबुले, हर पल रहता साथ !
है दीन दुखी से प्रेम तो, सर जगन्नाथ का हाथ !!
स्वयं प्रभू ही तो बैठे हैं दीन रूप धरकर साकार !
खोटे सिक्के नहीं दया के, सच्ची सेवा की दरकार !!
दाहक होती आह दुखी की सबसे बढ़कर !
सेवा उसकी ही सच्ची प्रभुसेवा हितकर !!
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चिकटे जी काव्य रूपांतर
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