देख कबीरा रोया 1 - ओशो वाणी
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मेरी दृष्टि में जीवन में शान्ति हो और अन्तस्थल पर प्रेम का उदघाटन हो तो आदमी जो भी करता है, वह सेवा है | रास्ते पर बुहारी लगाना ही रचनात्मक नहीं है, आपकी खोपड़ी में बुहारी लगाना ज्यादा रचनात्मक है | विचार से बड़ी और कोई रचना जगत में नहीं है | विचार से महीन, विचार से ज्यादा अद्भुत, विचार से ज्यादा शक्तिशाली कोई क्रान्ति नहीं है | क्योंकि मूलतः विचार के बीज ही ह्रदय में जाकर अंततः जीवन को, समाज को रूपांतरित करते हैं |
मेरी दृष्टि में भारत के दुर्भाग्यों में से एक दुर्भाग्य यह रहा है कि हम अपने महापुरुषों की आलोचना करने में समर्थ नहीं हो पाते, इसके सम्बन्ध में दो ही बातें कही जा सकती हैं | एक तो यह कि हम अपने महापुरुषों को इस योग्य नहीं समझते कि उनकी आलोचना की जा सके या अपने महापुरुषों को इतना कमजोर और साधारण समझते हैं कि आलोचना में वे टिक नहीं सकेंगे | मैं गांधी के सम्बन्ध में ये दोनों बातें मानने को तैयार नहीं हूँ | मेरी समझ में गांधी कोई कागजी महापुरुष नहीं हैं कि आलोचना की वर्षा आयेगी और उनका रंग रोगन बह जाएगा | गांधी को मैं दुनिया के उन थोड़े से महापुरुषों में से एक मानता हूँ, जो पत्थर की प्रतिमाओं की तरह हैं, जिन पर वर्षा होती है और धुल बह जाती है, प्रतिमा और निखर कर प्रकट होती है |
मेरी दृष्टि में भारत की बहुत प्राचीन समय से कुछ-कुछ बुनियादी भूलों में से एक भूल यह रही है कि हमने दरिद्रता का दर्शन विकसित किया है, जिसको फिलोसफी ऑफ़ पावर्टी कहा जा सकता है | पांच हजार वर्षों से हमने यह स्वीकार किया हुआ है कि दरिद्र होना भी कोई बड़े गौरव की बात है और उसके साथ ही धन-सम्पदा, समृद्धि की एक निंदा, एक बहिष्कार भी हमारे मन में रहा है | परिग्रह का एक विरोध, अपरिग्रह की एक स्थापना | समृद्धि विस्तार का विरोध, संकोच, दरिद्रता की स्वीकृति हमारे खून में प्रविष्ट हो गई है |
मैं कहना चाहता हूँ कि यह इसी “दरिद्र दर्शन” का परिणाम है कि भारत पांच हजार वर्षों की लम्बी सभ्यता के बाद भी दरिद्र है और समृद्ध नहीं हो पाया है | इस विचार का यह अंतिम परिणाम है |
गांधी ने जाने अनजाने पुनः इसी दरिद्रता के दर्शन को फिर से सहारा दिया है | गांधी ने फिर दरिद्र नारायण कह दिया | दरिद्र नारायण नहीं है, दरिद्रता पाप है, दरिद्रता रोग है | उससे घृणा करनी है, उसे नष्ट करना है | दरिद्र को अगर हम पवित्र और भगवान कहेंगे – इस तरह की बातें करेंगे और दरिद्रता को महिमा मंडित करेंगे तो हम दरिद्रता को नष्ट नहीं कर सकते है, हाँ दरिद्रता को बनाये ही रखेंगे | क्योंकि जब हम दरिद्रता को सम्मान देते हैं और दरिद्रता में संतोष कर लेने को एक धार्मिक गुण मानते हैं, तो फिर समाज समृद्ध कैसे होगा, समाज संपत्ति कैसे पैदा करेगा ?
संपत्ति आसमां से पैदा नहीं होती है, संपत्ति श्रम से पैदा होती है | श्रम आकस्मिक नहीं होता | श्रम विचार से जन्म लेता है और अगर हमारे विचार में सम्पदा का विरोध है है तो हम न श्रम करेंगे, न सम्पदा पैदा करेंगे | यह जो भारत एकदम श्रमशून्य मालूम पड़ता है – सुस्त, काहिल, अलाल मालूम पड़ता है, लेजी मालूम पड़ता है, यह लेजीनेस, यह सुस्ती, यह काम न करने की प्रवृत्ति, यह प्रवृत्ति उस विचार से पैदा होती है जो दरिद्रता कि, संतोषी बनने की शिक्षा देता है |
किन्तु यहाँ यह भी ध्यान रहे कि इसी कारण बुद्ध और महावीर जैसे लोग राजघरों को छोड़कर दरिद्र हो गये | हिन्दुस्तान में जैनियों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के लड़के थे | बुद्ध राजा के लडके थे | ये सारे तीर्थंकर और बुद्ध राजमहलों को छोड़कर दरिद्र हो गए, किन्तु इनके दरिद्र होने में और हमारी बातों में बुनियादी फर्क है | अमीर आदमी जब दरिद्र होता है, तब वह अमीरी को जानकर दरिद्र होता है | अमीरी व्यर्थ हो गई, इसलिए दरिद्र होता है | उसकी दरिद्रता और उस आदमी की दरिद्रता जिसने कभी अमीरी नहीं जानी, भरपेट भोजन नहीं किया, कपडे नहीं जाने, इन दोनों की दरिद्रता में कोई भी सम्बन्ध नहीं है |
सच बात तो यह है कि जब अमीर दरिद्र होता है, तो दरिद्रता भी एक आनंद मालूम होती है, क्योंकि दरिद्रता भी एक स्वतंत्रता मालूम होती है | गरीब आदमी जब दरिद्रता से संतोष कर लेता है तो वह संतोष सिर्फ दुःख को छिपाने का और सांत्वना का एक उपाय होता है | जब कोई समृद्धि को लात मारकर दरिद्र बनता है तब दरिद्रता समृद्धि का अंतिम विलास होती है | दरिद्रता समृद्धि के आगे का कदम है, समृद्धि के पहले का कदम नहीं है | समृद्धि को लात मारने का मजा है | वह सुख गरीब आदमी नहीं उठा सकता |
अमृतसर से एक ट्रेन जा रही है हरिद्वार की तरफ | सब लोग यही चिल्ला रहे हैं कि चलो गाडी के अन्दर बैठो, जल्दी भीतर चलो, सामान रखो | लेकिन भीड़ में एक आदमी कह रहा है कि गाडी में बैठूं तो जरूर, लेकिन अमृतसर में बैठता हूँ तो हरिद्वार में उतरना पडेगा न ? वह आदमी दलील दे रहा है कि जब उतरना ही पडेगा, तो फिर गाड़ी में बैठना ही क्यूं ? जब उतरना ही है तो उतरे ही रहें |
मित्रों ने जबरदस्ती धक्का दिया और कहा, यह तर्क कर समझाने का समय नहीं है | अन्दर बैठो, फिर तुम्हें समझायेंगे | आदमी यही चिल्लाता रहा कि जब उतरना ही है तो बैठने की क्या जरूरत है | फिर हरिद्वार आ गया, गाडी में अब दूसरी आवाज गूंजने लगी कि उतरो उतरो, नीचे उतरो, जल्दी उतरो, सामान उतारो | वह कहता है कि मैंने पहले ही कहा था कि जब उतरना है तो चढ़ना क्यों और अब जब चढ़ ही गए हैं तो उतरना क्यों ?
अगर गाडी में न चढ़े तो भी हरिद्वार नहीं पहुंचेंगे और गाडी में चढ़कर न उतरे तो भी हरिद्वार से वंचित रहेंगे | मेरी अपनी दृष्टि यह है कि समृद्धि की एक यात्रा है जीवन में | निश्चित ही एक दिन समृद्धि छोड़ देने जैसी अवस्था आ जाती है, लेकिन वह समृद्धि की यात्रा से ही आती है | दरिद्र आदमी अगर यह सोचे कि जब महावीर – बुद्ध जैसे लोग छोड़कर आ रहे हैं तो फिर मुझे परेशान होने की जरूरत क्या है, तो ध्यान रखें, उसकी दरिद्रता अमृतसर की दरिद्रता होगी, हरिद्वार की नहीं |
मेरी द्रष्टि में धार्मिक होने के लिए समृद्ध होना अत्यंत आवश्यक है | दरिद्र आदमी कैसे धार्मिक हो सकता है ? जिसकी रोटी की जरूरत पूरी नहीं होतीं, वह परमात्मा की जरूरत पैदा ही कैसे कर सकता है ? परमात्मा मनुष्य की अंतिम जरूरत है | गरीब आदमी को परमात्मा की शिक्षा देना अन्याय है और गरीब आदमी अगर परमात्मा के मंदिर में प्रार्थना भी करने जाता है तो उसके मन में केवल यही प्रार्थना होती है कि कल मुझे रोटी मिल सकेगी ना प्रभो ? वह परमात्मा के पास भी रोजी रोटी के लिए ही पहुंचता है, परमात्मा के लिए नहीं पहुँच सकता | परमात्मा के पास उसका जाना भौतिक होता है, आध्यात्मिक नहीं हो सकता |
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