अथातो भक्ति जिज्ञासा – श्री रजनीश
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इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे हमारे समाज को वैज्ञानिक विकास की चकाचोंध तो खूब मिली है, खूब सुख सुविधायें मिली हैं, लेकिन वैज्ञानिक उपकरणों के शोरगुल में जीवन का अन्तःसंगीत खो गया है |
वस्तुओं के अम्बार में व्यक्ति स्वयं कहीं खो गया है, या स्वयं बस्तु हो गया है | भक्ति जीवन का अन्तःसंगीत है | एक परम स्वीकृति है कि मैं यद्यपि एक लहर हूँ, किन्तु सागर से प्रथक नहीं हूँ | भक्ति एक बोध है कि मैं सागर ही हूँ | यह परम बोध जीवन का परम आनंद है |
सागर में लहर उठी, फिर लहर सो गई | क्या तुम सोचते हो कि लहर के उठने से सागर में कुछ नया जुड़ गया था ? अब लहर के चले जाने से क्या सागर में कुछ कमी हो गई ? न तो सागर में कुछ जुडा, न कुछ कमी हुई | सब बैसा का बैसा है |
सत्य न तो घटता, न बढ़ता | बढे तो कहाँ से बढे | घटे तो कहाँ घटे, कैसे घटे ? सत्य तो जितना है, उतना है | जिस दिन व्यक्ति अपने को लहर की तरह देखता है और परमात्मा को सागर की तरह, अपने को तरंग की तरह, इससे ज्यादा नहीं; एक रूप एक नाम इससे ज्यादा नहीं, एक भावभंगिमा, एक मुखमुद्रा, इससे ज्यादा नहीं, उसके भीतर उठा हुआ एक स्वप्न, इससे ज्यादा नहीं – अमृत से सम्बन्ध हो गया |
तत्संस्थस्या.... उसके साथ जो जुड़ गया | तत शब्द विचारणीय है | तत का अर्थ होता है : वह; देट | ईश्वर को हम कोई व्यक्तिवादी नाम नहीं देते, क्योंकि व्यक्तिवादी नाम देने से भ्रान्तियाँ होती हैं | राम कहो, कृष्ण कहो – भ्रान्ति खडी होती है | क्योंकि यह भी तरंग है, बड़ी तरंग सही, मगर तरंग है | उसकी तरंग है | अवतार सही, मगर आज हैं और कल नहीं हो जायेंगे | छोटी तरंग हो सागर में कि बड़ी तरंग हो, इससे क्या फर्क पड़ता है – तरंग तरंग है | उसकी | तत | उसमें जो टहह्र गया, उससे भिन्न अपने को जो नहीं मानता, उसका सम्बन्ध अमृत से हो जाता है, क्योंकि परमात्मा अमृत है |
ऐसा कहना कि परमात्मा अमृत है, शायद ठीक नहीं | ऐसा ही कहना ठीक है कि इस जगत में जो अमृत है, उसका नाम परमात्मा है | इस जगत में जो नहीं मरता, उसका नाम परमात्मा है | जो इस जगत में मर जाता है, वह संसार | जो नहीं मरता वह परमात्मा |
तुमने एक बीज बोया | बीज मर गया | लेकिन अंकुर हो गया | जो बीज में छिपा था वह अमृत, अब अंकुर में आ गया | बीज मर गया, उसने बीज को छोड़ दिया, वह देह छोड़ दी, अब उसने नई देह ले ली, नया रूप ले लिया | अब तुम बैठकर रोओ मत बीज की मृत्यु पर | क्योंकि बीज में तो कुछ और था ही नहीं, जो था अब अंकुर में है | फिर एक दिन वृक्ष बड़ा हो गया, फिर एक दिन वृक्ष मर गया | अब तुम रोओ मत वृक्ष की मृत्यु पर | क्योंकि जो वृक्ष मर गया, वह फिर बीजों में छिप गया है | अब फिर कहीं, फिर किसी मौसम में, फिर किसी अवसर पर, फिर किसी क्षण में बीज अंकुरित होंगे | फिर पौधा होगा, फिर वृक्ष होगा |
अपनी एक राह है मेरी
रुकने की और झुकने की
किसी न किसी जगह
पूरी तरह चुकने की |
जो अपने को पूरी तरह उंडेल देगा | कुछ और चढाने से काम नहीं होगा |
जैसे कबीर और मीरा | पंडित तो ज़रा भी नहीं थे | शास्त्र का भी कुछ बोध नहीं था | कबीर ने तो कहा है “मसि कागद छूयो नहीं” | स्याही और कागज़ तो कभी छुआ ही नहीं | लेकिन कबीर ने कहा है, “ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय” | बस उन्हीं को पढ़ लिया तो सब पढ़ लिया | उन ढाई अक्षरों में सब अक्षर आ गए | प्रेम द्वार है परमात्मा का ज्ञान नहीं |
शांडिल्य का सूत्र “तयोपक्षयाच्च” बड़ा अद्भुत है | उसके जानने से क्षय हो जाता है | इसके दो अर्थ हो सकते हैं | एक अर्थ तो यह हो सकता है कि ज्ञान के जानने से भक्ति का क्षय हो जाता है | दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि भक्ति के जानने से ज्ञान का क्षय हो जाता है | दोनों अर्थ प्यारे हैं |
पहला, ज्ञान से भक्ति का क्षय हो जाता है | जितना आदमी जानकार होगा, उतना ही कम प्रेम होगा | जानना प्रेम की ह्त्या करता है | जानना जहर है प्रेम के लिए | प्रेम के लिए विस्मय विमुग्धता चाहिए, ज्ञान तो रहस्य को छीन लेता है | ज्ञान तो कहता है, हम जानते हैं यह क्या है | छोटे बच्चे को हर चीज से प्रेम उपजता है | घांस में फूल खिला है और वह ठिठककर खडा हो जाता है | ऐसा फूल, ऐसा अद्भुत रंग | एक तितली उडी जा रही है, वह भरोसा नहीं कर पाता, कैसा चमत्कार, जैसे फूल को पंख लग गए हों | वह भागने लगता है तितली के पीछे | उसे हर चीज चमत्कृत करती है, क्योंकि वह कुछ नहीं जानता | अज्ञानी है विस्मय से भरा हुआ |
फिर तुम धीरे धीरे उसमें ज्ञान ठून्सोगे, हर चीज समझा दोगे | जब वह विश्वविद्यालय से वापस आयेगा, ज्ञानी होकर, सब गंवाकर, कोरे कागज़ के सर्टीफिकेट साथ लेकर, तब उसके पास हर चीज का उत्तर होगा | पत्ते हरे क्यों हैं ? वह कहेगा “क्लोरोसिल”, बात ख़तम हो गई | स्त्री सुन्दर क्यों लगती है, “हारमोन”, बात ख़तम हो गई | प्रेम क्या है, रसायन शास्त्र | आश्चर्य ही मर गया तो प्रीति कैसे उमगे ?
यही शांडिल्य के सूत्र में छुपा है, “तयोपक्षयाच्च” | दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती जाती है, उतना प्रेम कम होता जाता है | ग्रामीण के पास प्रेम है, शहरी के पास विदा हो गया | असभ्य के पास प्रेम है संभ्य के पास नहीं | जो जितना सुसंस्कृत हो गया है, उसके पास औपचारिकता है | लेकिन औपचारिकता में कोई प्राण नहीं, कोई जीवन नहीं | जैसे जैसे शिक्षा बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है, प्रेम संकुचित होता जाता है | “तयोपक्षयाच्च” | इसलिए ज्ञान भक्ति में सहयोगी तो होता नहीं, बाधा होता है |
और दूसरा अर्थ भी उपयोगी है | भक्ति से ज्ञान का क्षय हो जाता है | जब भक्ति का जन्म होता है तो आदमी पुनः अज्ञानी हो जाता है | वह सब ज्ञान व्यान को जलाकर फेंक देता है, राख कर देता है | क्योंकि जब परमात्मा से थोड़ा सा जुड़ता है, तब उसे पता चलता है कि जो जाना सब कचरा था | वह तो सब झूठ था, वह तो सब व्यर्थ था | अब असली हीरे मिले | तो वह जो कंकर पत्थर बीन रखे थे, फेंक देता है | अब तो अपने ही शास्त्र का जन्म हो गया है | अब तो उपनिषद अपने भीतर ही उतर रहा है | तो जैसे ही भक्ति का उदय होता है, ज्ञान क्षय हो जाता है |
तुम पूछते हो—जीवन क्या है? तुम्हें जानना होगा। तुम्हें अपने भीतर चलना होगा। मैं कोई उत्तर दूं; वह मेरा उत्तर होगा। शांडिल्य कोई उत्तर दें, वह शांडिल्य का उत्तर होगा। उधारी से कहीं जीवन निकला है!
बजाय तुम बाहर उत्तर खोजो, तुम अपने को भीतर समेटो। शास्त्र कहते हैं, जैसे कछुवा अपने को समेट लेता है भीतर, ऐसे तुम अपने को भीतर समेटो। तुम्हारी आंख भीतर खुले, और तुम्हारे कान भीतर सुनें, और तुम्हारे नासापुट भीतर सूंघें, और तुम्हारी जीभ भीतर स्वाद ले, और तुम्हारे हाथ भीतर टटोलें, और तुम्हारी पांचों इंद्रियां अंतर्मुखी हो जाएं; जब तुम्हारी पाचों इंद्रियां भीतर की तरफ चलती हैं, केंद्र की तरफ चलती हैं, तो एक दिन वह अहोभाग्य का क्षण निश्चित आता है जब तुम रोशन हो जाते हो। जब तुम्हारे भीतर रोशनी ही रोशनी होती है वही जीवन का सार है।
उत्तरों में नहीं मिलेगा समाधान। समाधि में समाधान है।
पूरब के किसी मनीषी के संबंध में कुछ भी पता नहीं। पश्चिम के लोग बहुत हैरान होते है। और उनका कहना ठीक ही है कि पूरब के लोगों को इतिहास लिखना नहीं आता। उनकी बात सच है। लेकिन पूरब की मनीषा को भी समझना चाहिए। पूरब के लोग इतना लिखने के आदी रहे है—सबसे पहले भाषाएं पूरब में जन्मी, ‘सबसे पहले किताबें पूरब में जन्मी, सबसे पहले पूरब में लिखावट पैदा हुई, सबसे पुरानी किताबें पूरब के पास है—तो जिन्होंने वेद लिखे, उपनिषद लिखे, गीता लिखी, वे चाहते तो इतिहास न लिख सकते थे! चाहकर नहीं लिखा।
उनकी बात भी समझनी चाहिए। जानकर नहीं लिखा। जिन्होंने कहा संसार माया है, वे इतिहास लिखें तो कैसे लिखें! किस बात का इतिहास! बबूलों का इतिहास! इंद्रधनुषों का इतिहास! मृग—मरीचिकाओ का इतिहास! जो है ही नहीं, उसका इतिहास! पश्चिम ने इतिहास लिखा, क्योंकि पश्चिम ने बाहर के जगत को सत्य माना है। इतिहास लिखने के पीछे बाहर के जगत को सत्य मानने की दृष्टि है। सत्य है, तो महत्वपूर्ण है। तुम सुबह उठकर अपने सपने तो नहीं लिखते! मिनट—दो मिनट भी याद नहीं रखते। जाग गए, बात खतम हो गयी। सपना भी कोई लिखने की बात है! तुम डायरी में अपने सपने नहीं लिखते। हालांकि पश्चिम में लोग सपने भी डायरी में लिखते हैं। जब बड़े सपने को मान लिया, तो छोटे सपने को भी मानना पड़ता है। और जिन्होंने बड़ा सपना ही इनकार कर दिया, वे छोटे सपने की क्या फिकर करें? सपने के भीतर सपना है!
तुमने देखा जैन मंदिर में जाकर चौबीस तीथ करों की प्रतिमाएं तुम भेद न कर सकोगे कौन किसकी है। सब एक जैसी हैं। लंबा कान इस बात का सूचक है कि यह लोग श्रवण में कुशल थे। वही सुनते थे, जो था जैसा था। इन्होंने ओंकार का नाद सुना था, इस बात की खबर देने के लिए लंबा कान बनाया। यह जो नाद से भरा हुआ जगत है, इनको सुनायी पड़ गया था। इनकी बड़ी—बड़ी आखें सिर्फ इस बात की खबर हैं कि इनकी दृष्टि बड़ी थी, गहरी थी, पारदर्शी थी। इनकी अडिग प्रतिमा, थिर—भाव, शून्य—भाव इस बात का प्रतीक है कि भीतर इनके सब डावाडोलपन विदा हो गया था। थिर हो गए थे; कोई कंपन नहीं उठता था, निष्कंप हो गए थे।
कवि हम उसे कहते हैं जिसने जीया नहीं और गाया, ऋषि हम उसको कहते हैं जिसने जीया और गाया; जो जीया, वही गाया; जैसा जीया, वैसा ही गाया; जाना तो कहा; उसको ऋषि कहते हैं। बिना जाने कहा, उसको कवि कहते है। इसलिए कवि की कविता पढ़ो तो बहुत सुंदर मालूम होगी। हम मूल तो प्रश्न पूछते नहीं, हम गौण प्रश्न पूछते है। और कभी—कभी गौण के विवाद मे उलझ जाते हैं। सारी दुनिया में तथाकथित धार्मिक लोग गौण के विवाद मे उलझ गए है। मुसलमान सोचता है कि काबा कि तरफ हाथ जोड़कर प्रार्थना करूं तो ही पहुंचेगी। कोई सोचता है, काशी में स्नान करूं तो ही पहुंचूंगा। गौण में उलझ गए हैं। प्रार्थना महत्वपूर्ण है, किस तरफ हाथ किए क्या फर्क पड़ता है? परमात्मा सब ओर है। काबा ही काबा है। सब पत्थर काबा के पत्थर है। और सब जल गंगा है। मन चंगा तो कठौती में गंगा। वह नल की टोंटी से जो आती है, वह भी गंगा है, मन चंगा हो। रोग से भरे हुए मन को लेकर चले जाओगे, गंगा में भी स्नान कर आओगे, तो क्या होगा?
बुद्धिमान ही श्रद्धालु हो सकता है। बुद्धिहीन श्रद्धालु नहीं होता, सिर्फ विश्वासी होता है। और विश्वास और श्रद्धा में बड़ा भेद है।
विश्वास तो इस बात का संकेत है केवल कि इस आदमी को सोच—विचार की क्षमता नहीं है। विश्वास तो अज्ञान का प्रतीक है। जो मिला, सो मान लिया। जिसने जो कह दिया, सो मान लिया। न मानने के लिए, प्रश्न उठाने के लिए तो थोड़ी बुद्धि चाहिए, प्रखर बुद्धि चाहिए।
बुद्धि सिर्फ तुमसे यह कह रही है—उठाओ प्रश्न, जिज्ञासाएं खड़ी, करो, सोचो। और जब सारे प्रश्नों के उत्तर आ जाएं, और सारी शंकाएं—कुशकाएं गिर जाएं, तब जो श्रद्धा का अविर्भाव होगा, वही सच है।
महाभारत में कृष्ण की सारी फौजें कौरवों के साथ थीं | केवल कृष्ण निहत्थे पांडवों के साथ थे | वह बात बस्तुतः सूचक है | संसार की सारी शक्तियां अँधेरे के पक्ष में हैं | संसार की शक्तियां यानी परमात्मा की फौजें | निहत्था परमात्मा भर तुम्हारे पक्ष में है | विश्वास नहीं होता कि निहत्थे परमात्मा के साथ विजय हो सकेगी | कृष्ण केवल अर्जुन के सारथी रहे हों ऐसा नहीं है | तुम्हारे रथ पर भी जो सारथी बनकर बैठे हैं, वे कृष्ण ही हैं |
जो भी तुम्हारे भीतर प्रेम का तत्व है, वही परमात्मा की पहली किरण है | तुम्हारे भीतर अन्धकार को अलग छांटना होगा, प्रकाश को अलग | वह जो उपनिषद के ऋषि ने परमात्मा से प्रार्थना की है – हे प्रभु मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल “तमसो मा ज्योतिर्गमय”, उसी से शुरूआत होती है साधना की |
पद पर पहुंचकर लोग जितने छोटे सिद्ध होते हैं, उतने और किसी तरह से नहीं होते | इच्छाएं तो सदा से थीं, लेकिन पूरी करने की सुविधा नहीं थी | सुविधा नहीं थी तो दुनिया को यही दिखाते थे कि इच्छा ही नहीं है | क्योंकि सुविधा नहीं है, यह कहने पर तो पीड़ा होती | अतः जब सुविधा मिलती है, तब असलियत प्रगट होती है | सब दबी हुई इच्छाएं प्रगट होने लगती हैं | जैसे वर्षाकाल में जमीन में दबे सब बीज अंकुरित होने लगते हैं | और पद से हटने के बाद आदमी को पता चलता है कि जिन्दगी हाथ से निकल गई और जो कचरा कमाया उसका कोई मूल्य नहीं |
रसो वै सः | वह परमात्मा रसरूप है | रस का अर्थ होता है, जैसे वृक्ष में हरा जीवन रस बहता | वही तो खिलता फूल में | जैसे तुम्हारे भीतर श्वांस में प्राण बहता | वही तो जिलाता तुम्हें, जगाता तुम्हें | जो जीवन का पोषक है | परमात्मा इस जीवन का रस है | जो संसार से विरस हो गया, जरूरी नहीं कि वह परमात्मा के रस को पा ले | लेकिन जो परमात्मा के रस में डूब गया, संसार उसके लिए बचता ही नहीं | उसे यहाँ फिर संसार दिखाई ही नहीं पड़ता, परमात्मा ही दिखाई पड़ता है, उसके ही रस की विभिन्न भाव भंगिमाएं, उसके ही रस के अलग अलग रूप, उसके हूँ रस के अलग अलग रंग | वही स्त्री में, वही पुरुष में, वही वृक्ष में, वही पशु में, वही पक्षी में, वही चाँद तारों में |
पहला सूत्र –
द्वेषप्रतिपक्षभावा: रस शब्दाचरागः |
द्वेष का प्रतिकूल और रस शब्द का प्रतिपादक होने के कारण ही भक्ति का नाम अनुराग है |
शांडिल्य के सूत्र बड़े अद्भुत हैं | द्वेष का प्रतिकूल, हो गई परिभाषा भक्ति की | द्वेष के प्रतिकूल ओर रस के अनुकूल वही भक्ति | भक्ति परमात्मा का प्रसाद है, मनुष्य का प्रयास नहीं |
जब सूरज निकलेगा तो उसकी रोशनी तुम्हारे घर को भर देगी | तुम सूरज को गठरियों में बाँध कर घर के भीतर नहीं ला सकते | तुम सूरज को आज्ञा नहीं दे सकते कि मुझे अभी रोशनी की जरूरत है, निकलो, अब सुबह होना चाहिए | सूरज जब निकलेगा तब निकलेगा | हाँ तुम सूरज को द्वार बंद कर रोक जरूर सकते हो | इस फर्क को समझ लेना | भक्ति को कोई चाहे तो रोक सकता है, ला नहीं सकता | नकारात्मक द्रष्टि से तुम क्षमताशाली हो | सूरज निकला रहे, तुम आँख बंद करे रहो तो क्या करेगा सूरज ? तुम अँधेरे में रह जाओगे | भक्ति आती है, भक्ति भगवान से आती है | तुम सिर्फ पात्र बनो | तुम ग्राहक बनो |
सुकरात ने कहा है कि जब मैं जवान था, तो सोचता था, सब जानता हूँ | जब प्रौढ़ हुआ तब मुझे यह अकल आई कि मैं सब नहीं जानता, थोड़ा सा जानता हूँ, बहुत जानने को शेष है | और जब मैं बूढा हुआ, तो मुझे यह अकाल आई कि जानता ही क्या हूँ ? महा अज्ञानी हूँ | मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन ?
न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत निकाला कि जमीन खींचती है हर चीज को अपनी तरफ | यह अधूरा सिद्धांत है | अगर मेरा न्यूटन से मिलना हो तो उससे मैं कहूं कि हमने जमीन में बीज बोया लेकिन फल लगा आकाश में ? यह फल चढ़ा कैसे ? फक टूटकर गिरता है तो जमीन पर गिरता है, यह सच है | तो इससे एक सिद्धांत तय होता है कि जमीन खींचती है | मगर कोई ताकत होनी चाहिए जो ऊपर की तरफ भी खींचती है | नहीं तो वृक्ष उठेगा ही कैसे ? बीज अगर टूटे न तो नीचे की तरफ जाएगा, बीज अगर टूट जाए तो ऊपर की तरफ जाएगा | अहंकार अगर टूटे न तो नीचे की तरफ ले जाता है, नरक की यात्रा करवाएगा, अहंकार अगर टूटे तो सारा वर्ग तुम्हारा है, तुम्हारे लिए प्रतीक्षा कर रहा है |
किसी ने कहा “ईश्वर प्रकाश है” | यह आधी बात है | और किसी ने कहा कि ईश्वर अन्धकार है | यह भी आधी बात है | ईश्वर दोनों है, जिसने जाना, उसने ईश्वर के दोनों अंग जाने, दोनों पहलू जाने | लेकिन प्रकाश और अन्धकार दोनों कहना तर्कहीन है | कोई भी पूछेगा कि प्रकाश और अन्धकार दोनों कैसे हो सकता है | फिर तुम तर्क की झंझट में फंसोगे | कोई कहेगा – फिर आप ऐसा करो कि इस कमरे में प्रकाश और अन्धकार दोनों एक साथ करके दिखा दो | यह तो हो ही नहीं सकता | या तो प्रकाश होगा, या अन्धकार होगा | अब तुम कैसे सिद्ध करोगे कि प्रकाश और अन्धकार दोनों है |
अब चौथा रास्ता है कि तुम कहो कि न प्रकाश है और न अन्धकार | तो पूछने वाला पूछेगा – फिर क्या है ? क्योंकि दो में से एक होना ही चाहिए | अगर दोनों में से नहीं है तो फिर क्या कहने की कोशिश कर रहे हो ? न प्रेम न घृणा, न पदार्थ न चेतना, न प्रकाश न अन्धकार, न जीवन न मृत्यु है तो फिर है क्या ? क्या पहेलियाँ बुझा रहे हो ?
जो कुछ भी कहो ये चार उपाय ही हैं कहने के | पर जिस ढंग से भी कहो, वही ढंग गलत हो जाता है | न कहो चुप रह जाओ तो ??
इस सदी में जिस आदमी का सर्वाधिक प्रभाव पडा है दुनिया पर, वह है फ्रायड | क्योंकि उसने निम्नतम बातों को वरीयता दी, श्रेष्ठतम बातों को अस्वीकार कर दिया | उसने कह दिया, न कोई परमात्मा, न कोई आत्मा, न कोई समाधी, सब बकबास है | असली बात तो काम वासना है | सब लोगो ने राहत की सांस ली | हम जो कर रहे हैं, वही ठीक है | नाहक उलझाया हुआ था धार्मिकों ने, बुद्धों ने | चैन ही नहीं लेने देते थे | जीना दुश्वार कर दिया था | धन कमाओ तो बीच में खड़े हो जाते, स्त्री के पीछे दौड़ो तो बीच में | फ्रायड आया त्राता की तरह, तरण तारण | उसने एकदम मन हल्का कर दिया | भारी बोझ उतर गया | उसने कहा यही तो आदमी कर रहा है, सदा से कर रहा है | जो नहीं कर रहा है, वह या तो पागल है, या धोखेबाज है, या खुद धोखे में है | लेकिन उसका परिणाम क्या हुआ | आदमी उतना नीचा कभी नहीं गिरा जितना फ्रायड के बाद गिरा | जब ऊंचे उठने की बात ही झूठ मान ली गई तो कोई ऊंचे उठने का प्रयास ही क्यों करेगा ? जब एवरेस्ट है ही नहीं, तो कोई पहाड़ क्यों चढ़े ? जब हीरे की खदान होती ही नहीं तो कोई क्या खोदता फिरे ? तो अपना कूड़ा करकट जो भी है, वही संभालो | तो फ्रायड के बाद मनुष्य जाती की चेतना में अपूर्व पतन आया | दो आदमियों के ऊपर मनुष्य जाती के पतन का जिम्मा है | एक फ्रायड, दूसरा मार्क्स | एक ने कहा काम वासना सब कुछ है, तो दूसरे ने कहा अर्थ वासना सब कुछ है | दोनों ने तुम्हे मुक्त कर दिया | दोनों ने धर्म से मुक्त कर दिया | दोनों ने कहा, बस दो चीजें करने योग्य हैं, काम की तृप्ति करो और धन पाओ | बस ये दो चीजें मूल्यवान हैं | और आदमी पागल होकर दोनों के पीछे पड गया | बैसे ही आदमी डूबा था गर्त में, अब कोई उपाय ही नहीं रहा मुक्ति का |
फूल खिले, सुगंध किसी के नासापुट तक पहुँचती है, यह बात प्रयोजन की नहीं है | पहुंचे तो ठीक, न पहुंचे तो ठीक | फूल को इससे अंतर नहीं पड़ता | तुम्हारी प्रार्थना भी फूल की गंध की तरह होना चाहिए | तुमने निवेदन कर दिया, तुम्हारा आनंद निवेदन करने में ही होना चाहिए | सूफी फकीर जलालुद्दीन ने कहा है – लोग प्रार्थना करते हैं, ताकि परमात्मा को बदल दें | पत्नी बीमार हुई, अगर उसकी आज्ञा से ही पत्ता हिलता है, तो उसकी आज्ञा से ही पत्नी बीमार हुई होगी | आप गए प्रार्थना करने, ज़रा सुझाव देने कि बदलो यह इरादा, मेरी पत्नी बीमार नहीं होनी चाहिए | यह भूल चूक सुधार लो, नहीं तो मेरी श्रद्धा डगमगाने लगेगी | या तो मेरी पत्नी ठीक हो, या फिर कभी भरोसा न कर सकूंगा कि तुम हो | तुम परमात्मा से स्वयं को ज्यादा समझदार समझ रहे हो | यह प्रार्थना हुई ? यह तो अपमान है | यह आस्तिकता नहीं नास्तिकता है | आस्तिक कहता है – तेरी मर्जी ही ठीक है | मेरी मर्जी सुनना ही मत | मैं तो कमजोर हूँ, जानता समझता ही क्या हूँ ? मेरी सुनी तो सब भूल हो जायेगी | ठीक की कोई और परिभाषा ही नहीं | तू जो करे वह ही ठीक है |
लोग जाते है प्रार्थना करने ताकि परमात्मा को बदल दें | असली प्रार्थना वह है जो तुम्हें बदलती है |
एक कमरे में दो दिए जलाए | दिए तो दो अलग अलग हैं, लेकिन उनका प्रकाश एक होगा, मिल जाएगा | चाहे जितना प्रयत्न कर लो दिए मिलकर एक नहीं हो सकते | वे दो ही रहेंगे | प्रकाश दो नहीं हो सकता, वह एक ही रहेगा | कमरे में दो क्या पचास दिए जला दो, रोशनी बढ़ती जायेगी, प्रकाश बढ़ता जायेगा, पर रहेगा एक ही | दिए भी नहीं कहेंगे कि दूसरे दिए मत लाओ, हमारी रोशनी में बाधा पड़ती है | हमारी रोशनी का क्षेत्र कम होता है, दूसरे दिए की रोशनी कब्जा कर लेती है | आत्मा तुम्हारी रोशनी है और शरीर दिया है |
प्रयास है मनुष्य के अहंकार की छाया | प्रसाद है निरहंकार दशा में उमगी सुगंध |
प्रयास से मिलता है छुद्र | आदमी की मुट्ठी बड़ी छोटी है | कंकड़ पत्थर बाँध सकते हो, मुट्ठी में हिमालय को बांधने चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे | प्रयास से मिलता है छुद्र, आदमी की शक्ति अल्प है इसलिए | प्रसाद से मिलता है विराट | प्रयास है बंद मुट्ठी, प्रसाद है खुला हाथ | मैं पाकर ही रहूँगा, इसमें ही भ्रान्ति है | क्योंकि “मैं” ही भ्रान्ति है | मिला तो हुआ ही है | ऐसा जिस दिन जान जाओगे, उस दिन मिल गया | मिला ही था, सदा से मिला था, सिर्फ मन की अकाद के कारण दिखाई नहीं पड़ता था | सूरज निकला है, तुम अपनी आँख बंद किये बैठे हो | इतना ही नहीं, आँख बंद करके सूरज की तलाश भी कर रहे हो | तुम लाख प्रयास कर लो, आँख अगर बंद रहे तो प्रकाश तुम्हें मिलेगा नहीं | जबकि प्रकाश चारों तरफ है, सब तरफ से बरस रहा ही, तुम नहाए हुए हो उसमें, आँख खोलते ही मिल जाएगा | अहंकार है बंद आँख और निरहंकारिता है खुली आँख | प्रसाद का अर्थ है, तुम्हारे कारण नहीं, प्रभु के कारण | भेंट है उसकी तरफ से | तुम्हारे लिए सौगात है |
पर यह मिलता कैसे है, होता कैसे है ?
यह तो मैं भी नहीं जानता | क्योंकि तुम अगर जान लो कि कैसे होता है, तब तो तुम करने में सफल हो जाओगे | फिर तो प्रयास से प्रसाद मिलने लगेगा | तुम लाख सर पटको, कितने ही पूजा के फूल चढाओ, कितनी ही दीपमाला सजाओ, कितनी ही आरती उतारो, नहीं होगा | क्योंकि तुम करता की तरह वहां मौजूद हो |
हो सकता है किसी को ऐसे हुआ हो, संयोग से वह हाथ से थाल उतार रहा था, और उस समय घटा, निरहंकार घटा | मगर निरहंकार घटने का कोई कार्य कारण सम्बन्ध आरती के थाल से नहीं था | किसी दूसरे को जंगल में लकड़ी काटते घट गया था | किसी तीसरे को वृक्ष के नीचे घट गया था | किसी चौथे को नाचते हुए घट गया था | किसी पांचवे ने वीणा के तार छेड़े और घट गया | मगर इनका किसी का भी कार्य कारण सम्बन्ध नहीं है | यह प्रासंगिक हुए, यह प्रसंगवशात हुए | इसमें से किसी को भी तुम ऐसा मत सोच लेना कि ऐसा ही मैं करूंगा |
समझो मीरा को घटा नाचते | नाच से नहीं नाचते हुए | नाच से घटा, तब तो हमारे हाथ में सूत्र आ गया | फिर तो हम भी नाचेंगे और घट जाएगा | कितनी ही नर्तकियां मीरा से बेहतर नर्तकियां हैं | नाच से घटा होता तो जो अच्छा नाचता, उसे पहले घट जाता | मीरा को घटा, नाचते नाचते खो गई, अहंकार गिर गया, नर्तक विदा हो गया, और जहाँ मैं नहीं रहा, वह घटा |
बुध को बिना नाचते घटा | अब बुध के बाद ढाई हजार वर्षों से कितने लोग वृक्ष के नीचे बैठे हैं आँख बंद किये और नहीं घटता | वृक्ष के नीचे आँख बंद करने से नहीं घटता | यह संयोग की बात थी | यह कहीं भी घट सकता है | यह तुलाधर बनिए को दूकान पर बैठे बैठे घटा था, तराजू तौलते तौलते घटा था | यह जनक को सिंहासन पर बैठे बैठे घटा था | यह कृष्ण को संसार के मध्य में घटा था | यह महावीर को संसार से हट जाने पर, पहाड़ की कंदराओं में नग्न खड़े खड़े घटा था |
अध्यात्म विज्ञान नहीं है | अध्यात्म विज्ञान जैसी छुद्र सीमाओं में आबद्ध नहीं है | हाँ एक सूत्र ख्याल में रखना, जब भी तुम नहीं हो, तब घटता है | इसलिए तुम्हारे कारण तो नहीं घटता है, तुम्हारे द्वारा नहीं घटता | तुम्हारे प्रयास से नहीं घटता | तुम्हारी अनुपस्थिति में घटता है | यह कैसे होता है ? सो तो मैं भी नहीं जानता | जिनको घट गया, वे भी नहीं जानते कि कैसे होता है | उनसे भी तुम पूछो तो वे कहेंगे, मुश्किल है बात, मत पूछो, इतना ही कह सकते हैं कि हमारे किये नहीं घटा | लेकिन कुछ बात कही जा सकती हैं, नकारात्मक | प्रयत्न के अभाव में होता है |
प्रयत्न के अभाव में होता है |
अनमने किसी भाव में होता है |
गहरे किसी चाव में होता है |
हाँ घाव में भी होता है |
मगर वह अपना न हो,
कोरा कोई सपना न हो |
परमात्मा को पाना नहीं है, परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है | सिर्फ उसकी स्मृति खो गई है | भूला गए हो, बीच में कुछ धुंधले परदे आ गए हैं, धुंआ आ गया है, भूल गए हैं | परमात्मा को तुम जानते तो हो ही, क्योंकि उससे ही आये हो | परमात्मा भविष्य में मिलने वाला नहीं है, अतीत में खो गया स्त्रोत है | परमात्मा आगे नहीं है, पीछे है | तुम्हारे भीतर खडा है | तुम चारों दिशाओं में भागे जा रहे हो | जितना भागते हो उतना चूकते हो | प्रसाद का अर्थ होता है, अब नहीं भागूंगा, अब नहीं खोजूंगा, अब अपने पर भरोसा और नहीं करूंगा |
वस्तुओं के अम्बार में व्यक्ति स्वयं कहीं खो गया है, या स्वयं बस्तु हो गया है | भक्ति जीवन का अन्तःसंगीत है | एक परम स्वीकृति है कि मैं यद्यपि एक लहर हूँ, किन्तु सागर से प्रथक नहीं हूँ | भक्ति एक बोध है कि मैं सागर ही हूँ | यह परम बोध जीवन का परम आनंद है |
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