राष्ट्र जीवन की दिशा - प.दीनदयाल उपाध्याय


जीवन यात्रा -
दीनदयाल जी का जन्म 25 सितम्बर 1916 (विक्रम संवत 1973) शालिवाहन शक 1638, आश्विन कृष्ण 13 सोमवार के दिन जयपुर अजमेर रेलमार्ग पर धनकिया गाँव में उनके नाना श्री चुन्नीलाल जी शुक्ल  के घर में हुआ |
उनके नाना धनकिया के स्टेशन मास्टर थे | पंडित जी के पिता श्री भगवती प्रसाद जी मथुरा जिले के नगला चंद्रभान के मूल निवासी थे | वे मथुरा के जलेसर रोड स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में काम करते थे | पंडित जी की माताजी का नाम श्रीमती रामपियारी था | पंडित जी के दादा प. हरिराम जी प्रख्यात ज्योतिषी थे | उनकी मृत्यु पर आगरा और मथुरा के बाज़ार बंद हो गए थे |
पंडित जी के जन्म के दो वर्ष बाद उनके एक और भाई हुआ जिसका नाम शिवदयाल रखा गया | इसके छः माह बाद ही पिता प. भगवती प्रसाद जी का स्वर्गवास हो गया | तत्पश्चात उनका लालन पालन उनके नाना प. चुन्नीलाल जी के यहाँ ही हुआ | जब पंडित जी साढ़े छः वर्ष के ही थे तभी उनकी माता जी भी स्वर्गवासी हो गईं | सन 1934 कार्तिक कृष्ण 11 को छोटे भाई शिवदयाल भी चल बसे और पंडित जी पूर्णतः एकाकी हो गए | किन्तु उनके ननिहाल के सभी लोग उन्हें बहुत प्यार करते थे | उनके मामा श्री राधारमण शुक्ल गंगापुर राजस्थान स्टेशन पर फ्रंटियर मेल के गार्ड थे | ननिहाल के सर्व श्री प्रभुदयाल शुक्ल, स्वामीनाथ, ब्रह्मानंद, विजय कुमार, अरुण कुमार आदि लोगों के साथ पंडित जी का स्नेह सम्बन्ध सदैव कायम रहा |
पंडित जी ने सीकर के कल्याण हाई स्कूल से मेट्रिक की परिक्षा प्रथम श्रेणी में भी प्रथम रहकर उत्तीर्ण की, जिससे उन्हें बोर्ड तथा विद्यालय की ओर से स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ | उसके दो वर्ष बाद उन्होंने पिलानी के बिरला कोलेज से इंटर की परीक्षा पुनः सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की और पुनः बोर्ड तथा विद्यालय से स्वर्ण पदक प्राप्त किये | कानपुर के सनातन धर्म कोलेज से गणित विषय के साथ बी.ए. भी प्रथम श्रेणी से ही उत्तीर्ण किया | इलाहावाद से वे एल.टी. हुए | पूरी महाविद्यालयीन शिक्षा में उन्हें छात्रवृत्ति प्राप्त होती रही | इस बीच अध्ययन के लिए वे कुछ समय गंगापुर, कोटा, आगरा तथा रामगढ़ भी रहे | रामगढ़ में उनके एक मामा श्री नारायण शुक्ल स्टेशन मास्टर थे | विद्यार्थी काल में ही उनकी मित्रता श्री सुन्दर सिंह जी भंडारी से हुई |
सन 1937 में पंडित जी का सम्बन्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ जिसका श्रेय मुख्यतया माननीय भाऊराव जी देवरस को है | उस वर्ष मकर संक्रमण उत्सव में वेदमूर्ति प. सातवलेकर जी द्वारा कानपुर शाखा को ध्वज प्रदान किया गया था, उसी अवसर पर पंडित जी की प्रतिज्ञा हुई | सन 1942 से पंडित जी का प्रचारक जीवन प्रारंभ हुआ | वे लखीमपुर जिला प्रचारक बने | उन दिनों सर्व श्री बापूराव जी मोघे, भैया जी सहस्त्रबुद्धे, नानाजी देशमुख, बापू जोशी आदि लोग भी उत्तरप्रदेश में ही संघ कार्य कर रहे थे | सन 1947 में वे उत्तरप्रदेश के सह प्रांत प्रचारक नियुक्त हुए |
सन 1947 में ही राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना हुई तथा राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक, व स्वदेश दैनिक का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ | पंडित जी पांचजन्य व स्वदेश के सम्पादक कार्य में सहयोग करने लगे | प्रकाशन के प्रवंध निदेशक श्री नानाजी देशमुख थे | सम्पादन कार्य क्रमशः सर्व श्री महावीर प्रसाद त्रिपाठी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, अटलविहारी वाजपेई, महेंद्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चन्द्र मिश्र, तिलक सिंह परमार, यादवराव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी आदि लोगों ने संभाला | इनके अतिरिक्त मनमोहन गुप्त, ज्वालाप्रसाद चतुर्वेदी(प्रबंधक), राधेश्याम कपूर(प्रकाशक), बजरंगशरण तिवारी(प्रेस व्यवस्थापक) आदि कार्यकर्ता भी राष्ट्रधर्म परिवार में थे, जिनके पालक की भूमिका में दीनदयाल जी थे |
5 मई 1951 को डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में कलकत्ता में पीपुल्स पार्टी की स्थापना हुई | 27 मई 1951 को जालंधर में प्रादेशिक स्तर पर भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई | 8 सितम्बर 1951 को विविध प्रान्तों के कार्यकर्ताओं की दिल्ली बैठक में अखिल भारतीय दल की स्थापना पर विचार हुआ | 20 से 22 अक्टूबर तक दिल्ली के राघोमल हायर सेकेंडरी स्कूल के प्रांगण में अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित किया गया | इसी सम्मेलन में 21 अक्टूबर को भारतीय जनसंघ की स्थापना की अधिकृत घोषणा की गई | जनसंघ का प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन दिसंबर 1952 में कानपुर में हुआ तथा जनसंघ के अखिल भारतीय महामंत्री के रूप में दीनदयाल जी के नाम की घोषणा की गई | 1967 में उन्होंने जनसंघ के अखिल भारतीय अध्यक्ष का पद तब स्वीकार किया जब दल की संगठनात्मक नींव डालने का कार्य पूर्ण हो गया | 11 फरवरी 1968 को बज्राघात हुआ जब सारे देश ने उनकी ह्त्या का समाचार सुना |
जीवन शैली –
संघ कार्य की प्रारम्भिक अवस्था में किसी नए स्थान पर कार्य प्रारम्भ करना कितना कठिन और दुष्कर होता था, उसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती | गोलागोकर्णनाथ में लम्बे समय तक भड्भून्जे की दूकान से चने खरीदकर उन्ही पर जीवन यापन करने वाले दीनदयाल जी, मुहम्मदी में एक दूकान की पटरी पर रात बिताने वाले, दो पैसे बचाने के लिए भारी वर्षा में स्टेशन से गाँव तक तांगे के स्थान पर पैदल जाने वाले, आजीवन अपने कपडे स्वयं धोने वाले, पुराने कपड़ों की सिलाई कर काम चलाने वाले दीनदयाल जी ने सार्वजनिक धन का उपयोग एक न्यासी के समान करने और मितव्ययता का आदर्श उदाहरण अपने आचरण से प्रस्तुत किया |
वैचारिक अधिष्ठान –
डॉ. श्याम बहादुर वर्मा ने एक बार उनसे पूछा - “दीनदयाल जी, क्या आपको ऐसा लगता है कि सत्ता मिलने के बाद कांग्रेस जिस प्रकार भ्रष्ट हो गई, उसी प्रकार भारतीय जनसंघ सत्ता मिलने के बाद भ्रष्ट नहीं होगा ? पंडित जी ने उत्तर दिया था – “सत्ता सामान्यतः भ्रष्ट करती है | इस सम्बन्ध में पूरी सतर्कता बरतने के बाद भी जनसंघ में यदि भ्रष्टाचार आ जाता है तो हम उसे विसर्जित कर दूसरे जनसंघ का निर्माण करेंगे और उससे भी काम न बना तो तीसरे जनसंघ का निर्माण करेंगे | और यही क्रम चलता रहेगा | भगवान परशुराम ने 21 बार राजाओं का संहार किया था | आदर्श राजा के रूप में अंत में रामचंद्र सामने आये | राम राज्य की स्थापना के बाद ही परशुराम ने वन की ओर प्रस्थान किया | हम भी अपने द्वारा निर्मित संस्थाओं के बारे में मोह क्यों रखें ? अपने ही हाथों से निर्मित संस्था भी यदि राष्ट्रहित के विरोध में कार्य करेगी तो ऐसी स्वनिर्मित संस्था का विनाश करना धर्म ही होता है | राष्ट्र सर्वश्रेष्ठ है, संस्था नहीं |
कन्फ्यूशियस ने कहा है कि “सत्ता प्राप्ति का एक मार्ग है – लोगों को जोडिये और मान लीजिये कि सत्ता आपके हाथ में आ गई | लोगों को जोड़ने का एक मार्ग है – उनके मनों को जीतिए और मानकर चलिए कि लोग आपके साथ हो गए हैं” | और इसी शास्त्रशुद्ध ढंग से दल के संगठन की नींव डालने का कार्य पंडित जी ने किया | जैसा कि श्री गुरूजी ने कहा है कि हम संगठन शास्त्र के विशेषज्ञ हैं, उन्होंने एक कुशल संगठक के साथ साथ श्रेष्ठ विचारक के रूप में भी स्वयं को सिद्ध किया | सामान्य कार्यकर्ताओं के सम्मुख कठिन विषय को सरल शब्दों में प्रस्तुत करने की कला में पंडित जी प्रवीण थे | एक बार संस्कृति का अर्थ उन्होंने कार्यकर्ताओं को इस प्रकार समझाया –
हर मनुष्य को किसी न किसी समय जमुहाई आती ही है | वह स्वाभाविक ढंग से आ जाए तो वह है प्रकृति, किन्तु जानबूझकर मुंह को टेढामेढा करके मुंह से ऊंची आवाज निकालना है विकृति | कतई कोई आवाज ना करते हुए मुंह के आगे रुमाल रखना है संस्कृति |
ध्येयनिष्ठा, विचारों की स्पष्टता एवं दूरदर्शिता – तीनों गुणों का संगम पंडित जी में हुआ था | उनका विश्वास था कि जल्दबाजी के कारण कई बार कार्यसिद्धि में अक्षम्य विलम्ब हो सकता है | परम पूज्य गुरू जी का भी मार्गदर्शन था कि “धीरे धीरे शीघ्रता करो” | इसी लिए उन्होंने राजस्थान में जमींदारी उन्मूलन के सम्बन्ध में सिद्धांत से समझौता न करते हुए तात्कालिक हानि स्वीकार करने जैसा कठोर निर्णय लेने में कोई कोताही नहीं की |
उसी प्रकार गुरूजी की एक अन्य सूचना का मर्म भी उन्होंने आत्मसात कर लिया था | वह सूचना थी – इतर क्षेत्र में कार्य करने वाले स्वयंसेवकों को शाखा के साथ नित्य सम्बन्ध रखने के बारे में अन्य स्वयंसेवकों से अधिक आग्रही रहना चाहिए |
उनकी श्रद्धा थी कि हिन्दुओं के सामाजिक एवं नैतिक नव-जागरण का सच्चा प्रभावशाली मार्ग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्य प्रणाली में है | उनका मत था कि समाजसुधार के विषय में बोलने वाले को उस समाज का हितचिन्तक होना चाहिए | लोकमान्य तिलक कहा करते थे – “हिन्दू धर्म में या रीतिरिवाजों में सुधार चाहने वाले को पहले तो यह पूरा पूरा अभिमान होना चाहिए कि मैं हिन्दू हूँ और मुझे हिन्दू ही रहना है” | पंडित जी कहा करते थे कि अपने धर्म पर जिसकी द्रढ़ श्रद्धा नहीं, ‘मैं हिन्दू हूँ’, इसका जिसे अभिमान नहीं, ऐसे व्यक्ति को हिन्दू धर्म या समाज में कोई सुधार की आवश्यकता बताने का नैतिक अधिकार नहीं |
27 दिसंबर 1967 को पटियाला में गुरू गोविन्दसिंह भवन का शिलान्यास करते हुए डॉ. जाकिर हुसैन ने कहा था – “मेरे विचार में मनुष्य को घर शब्द का ठीक से अर्थबोध हो जाए, तभी उसे मातृभूमि के साथ संबंधों के सच्चे महत्व का आकलन होता है | ‘घर’ कल्पना के अनेक अंगउपांग हैं | बालक की द्रष्टि से माँ की प्रेममई गोद ही ‘घर’ होती है | जैसे जैसे वह बड़ा होता है, माता पिता की झोंपड़ी या प्रसाद जो भी हो, उसकी द्रष्टि में घर का प्रतीक बन जाता है | धीरे धीरे उसमें बोध का विकास होता है, जिसके साथ सम्पूर्ण गली या बस्ती या नगर को उसके मन में घर का आशय प्राप्त होता है | तब उस समुचे परिवेश के वृक्ष, वनस्पति, पक्षी, पहचान के मुखड़े, पालतू प्राणी आदि जो भी आसपास हैं वे उसकी विलोभनीय गृह कल्पना की शोभा बन जाते हैं | इस प्रकार उच्च बोध व ज्ञान के क्षेत्र में जब वह प्रवेश करता है तो कितनी ही बातों का समावेश उसकी घर संबंधी द्रष्टि में हो जाता है | उसमें घर की विविध दीवारें और देहलियां होती हैं | नाना प्रकार के ध्येय और स्वप्न मानो मूर्त रूप धारण कर लेते हैं | धार्मिक कथाएं, रूपक कथाएं, कला एवं साहित्य, इतिहास एवं संस्मरणीय घटनाओं की मालिका आदि अन्य भी बहुतेरी बातों की आकर्षक साजसज्जा उसमें अंतर्भूत हो जाती हैं | संक्षेप में अनेक अन्गोपांगों से वह वास्तु विकास करता ही जाता है और समूचे राष्ट्र को अपनी बाहों में भर लेता है | उसे ऐसा लगने लगता है कि राष्ट्र के सारे निवासी अपने घर के ही आप्तजन हैं | सत्य और न्याय पर आधारित राष्ट्र के राजनैतिक ध्येय, उसके अनमोल सांस्कृतिक धन एवं परम्परा, इतिहास के आनंददाई एवं सुनहरे क्षण, सब ‘घर’ की दर्शनीय रचना के अविभाज्य भाग बन जाते हैं | प्रारंभ में केवल माँ की गोद में सीमित घर, अंत में केवल घर के चारों ओर के भौगोलोक परिवेश को ही नहीं, अपितु राष्ट्रीय जीवन के विशाल पट को भी अपने अन्दर समाने योग्य विशाल बन जाता है | मनुष्य के घर की परिधि कितनी विशाल बन जाती है |
इसी में अंतर्राष्ट्रीय या मानवीय तथा वैश्विक, दो आयाम और जोड़ दें तो पंडित जी को अभिप्रेत मानसिक विकास का स्वरुप ध्यान में आ जाएगा | भारत के एक अन्य महान पुत्र श्री विपिन चन्द्र पाल ने कहा था – “राष्ट्रीयता विश्व मानवता से प्रथक नहीं की जा सकती” |
“स्वतन्त्रता एवं स्वाधीनता के मूल्य और विशेषताएं स्व शब्द के आशय की भव्यता में हैं | यह स्व जहां व्यक्तिगत है, वहां वैश्विक भी है और वस्तुतः दोनों एक ही हैं ... और मनुष्य के सच्चे स्वातंत्र्य की कक्षा, जितना वह वैश्विक स्व के साथ अपनी एकता को अनुभव करेगा, उतनी ही मात्रा में विशाल होती जाती है |”
“सभ्यता की अंतिम अवस्था मनुष्य की परिपूर्णता है | केवल वैचारिक या भौतिक अर्थ में नहीं, अपितु नैतिक एवं आध्यात्मिक द्रष्टि से भी यह परिपूर्णता होनी चाहिए | मनुष्य को समाज के घटक एवं सम्पूर्ण समाज के एक अवयव के नाते प्राप्त होने वाली परिपूर्णता अधिक महत्व की है |”
“इस प्राचीन भूमि एवं यहाँ के जनसमाज का यूरोप, एशिया तथा अमरीका महाद्वीपों के आधुनिक राष्ट्रों में यह जीवनकार्य है कि आज की अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का प्रवर्तन करें, किसी निष्पक्ष एवं अधिकार संपन्न सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण विचार – विनिमय एवं सुयोग्य समझौतों को प्रेरणा दें और अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों तथा मतभेदों को विध्वंसक हथियारों के बल पर सुलझाने के लिए स्थान न रहने दें | इस प्रकार सारा संसार एक राष्ट्र में बदल जाने का कवि द्वारा देखा गया स्वप्न साकार करने में वे सहयोगी बनें | यह भी कि लोग एक दूसरे के साथ शांतिपूर्वक रह रहे हैं, सबके समान हितों के लिए सहयोग से काम कर रहे हैं और मनुष्य के अन्दर देवत्व की अभिव्यक्ति करने के लिए उपकारक हो रहे हैं, ऐसा युग प्रत्यक्ष में लाने के लिए अपना योगदान दें | भारतीय राष्ट्र का निर्माण करने वालों को यह बात सदैव आँखों के सामने रखनी चाहिए |”
“....हिंदुत्व केवल एक संघीय (फेडरल) परिकल्पना नहीं है | यह उससे भी आगे गया है, इतना आगे कि भारत विश्व एकता का अर्थात जागतिक संघ राज्य का ऐसा प्रतीक बन जाए जिसे कोई भी आकर देख सकता है |”
श्री पाल के विचारों की दिशा वही है | अंतर इतना ही है कि पंडित जी का एकात्म मानव दर्शन इस दिशा में कुछ आगे बढ़ गया है और वह सम्पूर्ण अस्तित्व की एकात्मता का साक्षात्कार कराने का प्रयास करता है
#संघ के विषय में सरदार पटेल के सद्भाव को प्रदर्शित करते पत्र के अंश, जो उन्होंने 16 जुलाई 1949 में श्री वेंकटराम शास्त्री को लिखा –
आप श्री गोलवलकर से मिलने वाले हैं और उन्हें कुछ हितकारी परामर्श भी देने वाले हैं | इसकी मुझे प्रसन्नता है | ऐसा परामर्श उनके लिए आवश्यक भी है | आपके प्रांत में क्या परिस्थिति है, आप भलीभांति जानते हैं | आपको यह भी भलीभांति विदित है कि आज कांग्रेस का एकमेव विकल्प अराजकता है | यह मेरी द्रढ़ धारणा आपको भी ज्ञात है | इसमें संदेह नहीं कि कांग्रेस संगठन को बल देने वाली कोई भी राजनैतिक शक्ति आज देश में नहीं है | इससे पहले भी मैंने संघ को सलाह दी थी कि उनके विचार से यदि कांग्रेस गलत मार्ग पर चल रही है तो वे कांग्रेस में शामिल होकर भीतर से उसे सुधारें, यही एक मार्ग अब उनके लिए खुला है | आप मेरी इस भूमिका से सहमत हों, तो मेरा सुझाव है कि आप भी उसे स्वीकार करें |
#भारत का संविधान –
भारत का संविधान विश्व में सबसे दीर्घ, सबसे बड़ा और सबसे विस्तृत लिखित संविधान है | अमरीका का संविधान उसमें किये गए संशोधनों सहित केवल 20 पृष्ठों का है | सन 1946 के चौथे फ्रांसीसी गणराज्य का संविधान 25 पृष्ठों का है | सन 1947 का इतालवी गणराज्य का संविधान 35 पृष्ठों का है | सन 1949 का संघीय गणराज्य जर्मनी का संविधान 45 पृष्ठों का है | भारत के संविधान की मूल पृष्ठ संख्या 250 से ऊपर है |
संविधान इतना लंबा चौड़ा होने पर भी उसके स्वरुप के बारे में नक्सलवादी नागी रेड्डी से लेकर संविधान विशेषज्ञ कोटेश्वर राव तक विभिन्न विचारवंतों ने विभिन्न कारणवश असंतोष व्यक्त किया है | विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इन लोगों में डॉ. सच्चिदानद सिन्हा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं स्वयं श्री बाबा साहब अम्बेडकर का समावेश है | चिंतामणी और मसानी ने तो एक छोर पर जाकर ऐसे तर्क दिए हैंकि यह संविधान विभिन्न प्रणालियों की त्रुटियों का संयोजन है | (A scheme which is a combination of drawbacks of different systems)
हमारा संविधान मुख्यतः 1935 के भारत शासन अधिनियम पर आधारित है | ब्रिटिश संसद द्वारा पारित यह शायद सबसे लंबा विधान है | संविधान विशेषज्ञ श्री बसु ने कहा था कि इसका तीन चौथाई भाग 1935 के भारत शासन अधिनियम पर आधारित है |
पंडित दीनदयाल जी का संविधान के विषय में मुख्य आक्षेप यह था कि उसका स्वरुप भारतीय नहीं है | भारत की संस्कृति, परम्परा, मानसिकता, आज की आवश्यकताओं एवं भावी आकांक्षाओं का इस संविधान में प्रतिबिम्ब नहीं है |
#स्वतन्त्रता के पूर्व कश्मीर में नॅशनल कांफ्रेंस थी किन्तु जम्मू में विभिन्न जाति समुदायों की सभाएं काम करती थीं | कुछ समय “हिन्दू राज्य सभा” चली किन्तु बाद में उसके सभी पदाधिकारी नॅशनल कांफ्रेंस में सम्मिलित हो गए | जैसे जैसे परिस्थिति विकट होती गई, जम्मू के नागरिकों में नव चेतना का संचार होने लगा | मा. माधवराव मुले, बलराज मधोक, डॉ. ओमप्रकाश मेगी, जगदीश अबरोल, डॉ.सूरज प्रकाश, श्यामलाल शर्मा, दुर्गादास वर्मा, राधाकृष्ण शर्मा आदि लोग प. प्रेमनाथ डोंगरा के निवास पर बार बार एकत्रित हो नई संस्था की स्थापना के विषय में चर्चा करने लगे | आगे चलकर जम्मू के गणमान्य नागरिकों की एक सभा ब्राह्मण सभा में बुलाई गई और उसमें ‘प्रजा परिषद्’ की स्थापना की घोषणा की गई | इस सभा में भाग लेने वाले प्रमुख लोग थे सर्व श्री परशुराम नागर, रायजादा अमरचंद, गोपालदत्त मैगी, देवेन्द्र शास्त्री, प्रा. रामकृष्ण, कविराज विष्णुगुप्त, चतरराम डोंगरा, श्रीनिवास मंगोत्रा, हंसराज पंडोत्रा, वजीर हरिलाल, शिवनाथ नंदा आदि | प्रजा परिषद् के प्रथम अध्यक्ष वजीर हरिलाल एवं मंत्री हंसराज पंडोत्रा चुने गए |
1946 के बाद कोलेज के पहले राष्ट्रीय उत्सव में नॅशनल कांफ्रेंस ने तिरंगे के स्थान पर अपना हलवाला झंडा फहराया | इसके विरुद्ध छात्रों ने प्रदर्शन किये | धरपकड़ के बाद छात्रों ने आमरण अनशन किये | 35 दिवस के अन्न सत्याग्रह के बाद छात्रों को मुक्त किया गया | इन छात्रों में सर्व श्री चमनलाल गुप्त, तिलकराज शर्मा, वेदप्रकाश चौहान, वेदमित्र, हरदेव, विश्वपाल, रामस्वरूप चौधरी, कैप्टन रामस्वरूप, सत्यपाल गुलाटी, पवन सिंह, ओमप्रकाश गुप्त, यशपाल पुरी, द्वारिकानाथ गुप्त तथा घनश्याम थे |
छात्रों के इस आन्दोलन के बाद प.प्रेमनाथ डोंगरा, धनंतरसिंह सलाधिया, कविराज विष्णुगुप्त, श्यामलाल शर्मा, शिवराम गुप्त और शिवनाथ नंदा आदि प्रजा परिषद् के नेताओं को बंदी बना लिया गया | इसके प्रत्युत्तर में श्री रूपचंद नंदा और श्री दुर्गादास वर्मा के संयोजकत्व में सत्याग्रह आन्दोलन प्रारम्भ हुआ | यह सत्याग्रह 10 माह चला | प्रा. शक्ति शर्मा तथा श्रीमती सुशीला मैगी के नेतृत्व में जम्मू की महिलाओं का एक शिष्ट मंडल उसी दौरान दिल्ली आकर सत्तारूढ़ व विपक्षी नेताओं से मिला | उसके बाद प्रधान मंत्री प. नेहरू ने बक्षी गुलाम मोहम्मद को एक पत्र भेजा | उसके बाद प्रजा परिषद् के बंदी नेता रिहा हुए तथा आन्दोलन समाप्त हुआ |
इसके बाद डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में हुए रोमांचकारी संघर्ष में सुन्दरवनी के तीन तथा ज्योडिया के सात सत्याग्रही बलिदान हुए | इनके अतिरिक्त छम्ब के मेलाराम, हीरानगर के भीखमसिंह और बिहारीलाल, रामवन के शिवाराम, देवीशरण तथा भगवानदास भी हुतात्मा हुए | ये सभी 16 वीर सरकार की गोलियों के शिकार हुए |
राष्ट्र जीवन की दिशा
भगवान अपनी घोषणा “धर्म संस्थापनार्थाय” अर्थात धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होते हैं | ऐसा वर्णन हमें सुनाने को नहीं मिलता कि भगवान का अवतार हुआ तो वे कहीं किसी गुफा में बैठकर एकांत मुक्ति की साधना में लग गए | इसलिए समाज को उन्नत बनाने का काम भगवान का काम है | राष्ट्र भक्ति, समाज भक्ति ही भगवान की भक्ति है | 
महाभारत में कहा गया कि “यतो धर्मस्ततो जयः” याने जहां धर्म है, वहीं विजय है | महाभारत के युद्ध में कौरवों के जितने प्रमुख सेनापति थे वे चालाकी से मारे गए | भीष्म को मारने के लिए शिखंडी को खडा किया गया | द्रोणाचार्य को युद्ध से विरत करने के लिए युधिष्ठिर ने झूठ बोला | कर्ण तब मारा गया, जब वह अपने रथ का पहिया गड्ढे से निकालने के लिए अर्जुन से अवसर मांग रहा था | दुर्योधन की मृत्यु तो भीम द्वारा कमर के नीचे गदा मारने से हुई | पांडवों द्वारा किये गए ये सब कार्य क्या धर्मानुकूल थे ?
पांडवों ने छल किया | फिर भी “जहां धर्म वहां विजय” की उद्घोषणा वेदव्यास करते हैं, क्या यह परस्पर विरोधी बात नहीं है ? इसका उत्तर खोजने पर विदित होगा कि कौरव और पांडवों में मौलिक अंतर था | कौरव पक्ष का प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिवादी था | भीष्म पितामह ने केवल अपनी निजी प्रतिज्ञा का विचार किया और शिखंडी के सामने शस्त्र नहीं प्रयोग किये | इतना ही नहीं तो अपनी मृत्यु का यह भेद द्रोपदी द्वारा पूछे जाने पर उसे बता भी दिया | उन्होंने यह चिंता नहीं की कि वे सेनापति हैं और उन पर सेना का भार है | दूसरी और अर्जुन ने “मैं” को छोड़ा और “हम” को स्वीकार किया | उधर भगवान श्री कृष्ण ने भी अपनी शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा को छोड़कर समय आने पर बिना आगा पीछा सोचे शस्त्र उठा लिए | समष्टि के हित में यह नहीं सोचा कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से क्या कहा जाएगा ?
द्रोणाचार्य ने पुत्रवध का झूठा समाचार पाकर शस्त्र त्याग दिए, जबकि युधिष्ठिर ने समष्टि की मांग पर आधा झूठ बोलकर अपना रथ थोड़ा नीचा कर लिया | कर्ण ने तो अपनी दानवीरता का ही ध्यान रखा और कवच कुंडल इंद्र को सोंप कर निश्चित मृत्यु का वरण कर लिया | कुंती ने आवश्यकता पड़ने पर कर्ण को यह बता दिया कि वह उसका कौमार्यावस्था का पुत्र है | यह बताने में उसे कितनी अपमानजनक स्थिति से गुजरना पडा होगा इसकी सहज कल्पना की जा सकती है | किन्तु इस सत्य की उदघोषणा द्वारा उसने कर्ण से यह वचन तो ले ही लिया कि वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी अन्य पांडव पर शस्त्र नहीं उठाएगा |
इस प्रकार कौरव पक्ष में सबको केवल अपनी अपनी चिंता थी | भीष्म को अपनी प्रतिज्ञा की चिंता थी, द्रोणाचार्य पुत्रमोह ग्रस्त थे, दुर्योधन को केवल मात्र अपने राज्य की चिंता थी | जबकि पांडव पक्ष में सबने अपने व्यक्तिवादी द्रष्टिकोण को छोड़कर भगवान कृष्ण के नेतृत्व में एकजुट होकर कार्य किया | समष्टि का विचार कर कार्य करने का ढंग ही धर्म और व्यक्तिवादी आधार पर सोचना अधर्म यह सीधी परिभाषा | जैसे किसी की ह्त्या करना पाप है, किन्तु युद्ध में लड़ने वाले सैनिक को कोई हत्यारा नहीं कहता | इसी प्रकार वोट देते समय यदि राष्ट्र का विचार किया तो धर्म होगा, किन्तु यदि व्यक्तिगत लाभहानि से प्रेरित होकर मतदान किया तो अधर्म हो जाएगा |
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि “मैं” नाम की कोई संज्ञा ही नहीं है | तात्पर्य केवल इतना है कि “मैं” की सार्थकता “हम” मैं होती है | हमारे यहाँ कहा गया है कि :-
अन्धतमः प्रविशन्ति येSसम्भूतिमुपासते
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः |
सम्भूतिम च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याSमृतमश्नुते |
जो व्यक्तिवाद का अवलंबन करते हैं, उनका अधःपतन होता है, किन्तु जो समष्टिवाद में रमते हैं, वे और अधिक नीचे गिरते हैं | व्यक्ति व समष्टि का साथ साथ रहना ही लाभदायक है | व्यक्तिवाद के अनुष्ठान से व्यक्ति के कष्ट दूर होते हैं तो समष्टिवाद से अमरत्व की प्राप्ति होती है |
# यूरोप में सभी देश किसी समय रोम के पोप के अधीन थे तथा प्रत्येक देश का राजा पोप के नाम पर ही शासन करता था | किन्तु धीरे धीरे रोमन कैथोलिक मत और पोप दोनों के प्रति असंतोष और विरोध की भावना बढ़ने लगी | फलतः प्रोटेस्टेंट मत का जन्म हुआ | फ्रांस की क्रान्ति के परिणाम स्वरुप समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व का उद्घोष हुआ | पवित्र रोमन साम्राज्य विघटित होकर ऐसे राज्य की कल्पना की गई जिसमें सभी मतों को मानने वाले नागरिक समान अधिकारों का उपभोग कर सकें | इसे ही सेक्यूलर स्टेट कहा गया तथा इसका उदय “होली रोमन एम्पायर” के विरोध में हुआ |
# हमारे राष्ट्र जीवन का प्रवाह हजारों वर्षों से चल रहा है | जैसे गंगा में अनेक छोटे मोटे नाद नाले आकर मिलते हैं उसी प्रकार इसमें अनेकों प्रकार की विविधताओं की धाराएं आकर मिलीं | शक हूण आदि अनेकों जातियां इसमें एकरस हो गईं | किन्तु यदि कोई जाति इस मूल जीवन प्रवाह से प्रथक रहने की चेष्टा करती है तो उससे विकृति उत्पन्न होगी, ठीक बैसे ही जैसे विविध प्रकार के अन्नों से मिलकर खिचडी बनती है, पर उसमें कंकड़ मिलाने से विकृति आती है |
समन्वय के भाव को परिपुष्ट बनाने के लिए सहिष्णुता आवश्यक है | सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की बहुत बड़ी विशेषता है | योरोपीय देशों में धर्म के नाम पर जिस प्रकार का रक्तिम संघर्ष हुआ, बैसा यहाँ नहीं हुआ | हमारा दृष्टिकोण यही रहा कि सब लोग अपनी अपनी उपासना पद्धति के अनुसार सिद्धि को प्राप्त करें | जिनमें ज्ञान की प्रखरता है, वे ज्ञान मार्ग से, भावुक ह्रदय वाले भक्ति मार्ग से, कर्म की प्रवलता वाले निष्काम कर्मयोग से लक्ष्य सिद्धि को प्राप्त करें, यही हमारी मान्यता रही | ज्ञान, भक्ति और कर्म के समन्वय का आदर्श प्रतिष्ठापित किया गया | ज्ञान रहित भक्ति ढोंग है, कर्म रहित ज्ञान व्यर्थ है, भक्ति रहित कर्म नीरस होता है, ज्ञान रहित कर्म अंधा होता है, इस प्रकार भक्ति समन्वित ज्ञान युक्त निष्काम कर्म ही हमारा आदर्श है |
कुछ लोग मानवता का विचार सबसे पहले करने की बात करते हैं | देशभक्ति और मानवता की सेवा में कोई विरोध नहीं है | वस्तुतः देशभक्ति मानवता का प्रथम सोपान है | जिसे अपनी जननी जन्मभूमि से प्रेम नहीं, वह मानवता की क्या सेवा करेगा ? जो व्यक्ति नारी मात्र को माता मानकर सबकी सेवा करने का प्रयत्न करे पर अपनी संकटापन्न माँ की सेवा को संकीर्णता कहे, उसे क्या कहा जाएगा ?
# हमारी संस्कृति का आधार भोग नहीं अपितु त्याग रहा | भगवान राम ने लंका को जीतकर उसका राज्य विभीषण को दे दिया | भरत ने भगवान राम की पादुकाएं राज्य सिंहासन पर विराजमान कर स्वयं तपस्वी वेश में नंदीग्राम से राज्य कार्य का संचालन किया | छत्रपति शिवाजी महाराज ने मिर्जा राजा जयसिंह को लिखा कि तुम मुगलों का साथ छोड़ दो, फिर सारा राज्य संभालो, मुझे राज्य की भूख नहीं है | चाणक्य ने चंद्र्गप्त के लिए विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, पर स्वयं निस्पृह भाव से प्रथक रहे | आज हमारे राजनैतिक जीवन में जो विकृतियाँ दिखाई दे रही हैं, वे आसक्ति के कारण उत्पन्न हुई हैं | सेवा का स्थान अधिकार ने ले लिया है | व्यक्ति की प्रतिष्ठा का आधार उसकी योग्यता अथवा गुण नहीं रहे, पैसा ही प्रतिष्ठा का आधार बन गया है | जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बदलना होगा | हमारी गौरवमई संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठापना से ही राष्ट्र जीवन में चतुर्दिक व्याप्त विकृतियों का शमन एवं निराकरण संभव है |
# लोकतंत्र की एक व्याख्या यह की गई है कि यह वाद-विवाद के द्वारा चलने वाला राज्य है | हमारे यहाँ की पुरानी उक्ति है “वादे वादे जायते तत्वबोधः” | किन्तु तत्वबोध तो तभी संभव है, जब दूसरे की बात को ध्यान पूर्वक सुनकर उसमें से सत्यांश को ग्रहण करने की मानसिकता होगी | यदि दूसरे का द्रष्टिकोण न समझते हुए अपने द्रष्टिकोण का ही आग्रह करते जाएँ तो “वादे वादे जायते कंठशोशः” की उक्ति चरितार्थ होगी | वाल्टेयर ने जब यहाँ कहा कि “मैं तुम्हारी बात को सत्य नहीं मानता किन्तु अपनी बात कहने के तुम्हारे अधिकार के लिए मैं सम्पूर्ण शक्ति से लडूंगा”, तो उसने केवल मनुष्य के कंठशोष के अधिकार को ही स्वीकार किया | भारतीय संस्कृति इससे आगे बढ़कर वाद-विवाद के तत्वबोध के साधन रूप में देखती है | हमारी मान्यता है कि सत्य एकांगी नहीं होता, विविध कोणों से एक ही सत्य को देखा, परखा और अनुभव किया जा सकता है | इन विविधताओं के सामंजस्य द्वारा जो सम्पूर्ण का आंकलन करने की शक्ति रखता है, वही तत्वदर्शी है, ज्ञाता है |
दूसरे की बात सुनना या उसके मत का आदर करना एक बात है और दूसरे के सामने झुकना बिलकुल भिन्न बात | क्योंकि इसमें एक खतरा बना रहता है कि जो सज्जन होते हैं, वे तो अपनी बात का आग्रह छोड़ देते हैं, किन्तु दुर्जन और दुराग्रही अपनी बात मनवाकर समाज में अगुआ बन जाते हैं | इसके कारण लोकतंत्र धीरे धीरे विकृत होकर समाज के लिए कष्टकारक बन जाता है | इसी संकट का सामना करने के लिए हमारे यहाँ के शास्त्रकारों ने “लोकमत परिष्कार” की व्यवस्था की |  किन्तु यह लोकमत परिष्कार का कार्य कौन करे ?
रूस तथा अन्य साम्यवादी देशों में यह काम राज्य के द्वारा किया जाता है | किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि वहां लोकमत परिष्कार के नाम पर व्यक्ति की सभी स्वतंत्रताएं समाप्त हो गईं तथा कुछ व्यक्तियों की तानाशाही ही सम्पूर्ण जनता की इच्छा के नाम पर चलने लगी | भारत में यह कार्य सदैव से वीतरागी द्वन्द्वातीत सन्यासियों द्वारा किया गया | वे अपने वचनों तथा निर्दोष आचरण से जन जीवन को संस्कारित करते रहे | अतः आज भी इस काम को करने वाले राज्य के मोह से दूर, भय से मुक्त महापुरुष एवं संगठक आवश्यक हैं, ताकि लोकमत अपनी सही दिशा में चलता रहे |
# एक राजा के दरवार में एक सौदागर आया व उसने राजा के सम्मुख चमकते हुए दो टुकडे रखे और कहा कि उनमें से एक हीरा है और दूसरा कांच | दोनों का मूल्य एक ही | यदि आप पारखी होंगे तो हीरा चुनेंगे, अन्यथा कांच को लेंगे | असमंजस में पड़े राजा ने यह कार्य एक अंधे साधू को सोंपा | साधू अंधा जरूर था किन्तु बुद्धिमान था | उसने कुछ ही देर में असली हीरा चुनकर राजा को दे दिया और दूसरा सौदागर को वापस कर दिया | इस कहानी के साधू ने हीरे की असलियत पहचानने के लिए दोनों को कुछ देर धुप में रखा था, कांच का टुकड़ा हीरे की अपेक्षा जल्दी और ज्यादा गर्म हो गया | इस प्रकार उसने असली हीरे को पहचान लिया | असली और नकली को पहचानने के अवसर जीवन में कई बार उपस्थित होते हैं | ऊपर से जो शीघ्र प्रगति का मार्ग दिखाई देता है, परिणाम में वह भूलभुलैया का खेल बनकर हमें गंतव्य से भटका देता है, कहीं का कहीं ले जाता है | जब तक हमें भटकाव का पता चलता है, तब तक सब गुड मिट्टी हो जाता है |
# एक विख्यात वकील के पास आकर एक डाकू ने उसका मुक़दमा लड़ने की प्रार्थना की | वकील साहब को लगा कि है तो पुराना पापी, कई डाके आदि डाले हैं, लेकिन इस मामले में निर्दोष है | उन्होंने उसका मुकदमा लड़ा और जीत भी गए | अदालत से बरी होने के बाद डाकू वकील साहब के पास कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए आया और पैर पकड़कर बोला “महाराज आपकी कृपा से छूट गया, मैंने कई डाके डाले हैं, चोरियां भी की हैं, बहुत लोगों को सताया है, लेकिन जनेऊ की कसम खाकर कहता हूँ कि मैंने कभी अपना धर्म नहीं छोड़ा” | वकील साहब ने आश्चर्य से पूछा, “सो कैसे” ? वह बोला, “महाराज इतनी उमर गुजर गई, लेकिन कभी किसी के हाथ का छुआ भोजन नहीं किया” |
यानी उसकी नजर में धर्मपालन केवल बिना छुआ भोजन करना भर था | इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म के नाम पर ऐसी कई चीजें चल गई हैं जो वास्तव में धर्म नहीं हैं |
# भारत का चिंतन अद्वैत का है | यहाँ जो दो को एक देखता है वही ठीक देखता है और है भी यही वास्तविकता | हमारे यहाँ पति पत्नी को एक ही माना गया है | कभी कोई टकराहट हो भी जाए तो परस्पर विरोधी मानकर हल नहीं निकाला जाता | जैसे किसी शारीरिक कमजोरी के कारण चलते चलते दोनों पैर आपस में टकरा जाएँ तो इसे स्थाई विरोध मानकर दोनों पैरों के बीच लकड़ी बांधकर स्थाई दूरी बनाकर टकराहट दूर करने का प्रयत्न क्या बुद्धिमानी होगी ? मूलतः यही समझना होगा कि टकराहट विकृति का लक्षण है, अव्यवस्था का लक्षण है |
वास्तव में आपसी तनाव और संघर्ष पैदा होने में बड़ी बातें कारण नहीं बनतीं, झगड़े आमतौर पर छोटी छोटी बातों पर ही ज्यादा होते हैं | स्वभाव अगर लड़ने झगड़ने का बन जाए तो बिना बात के भी झगड़ा जा सकता है | लोग मुर्गे लड़ाते हैं | आधार है मुर्गा, किन्तु अगर कोई कहे कि न मुर्गे होंगे न लड़ाई होगी, इसलिए जितने मुर्गे हैं सबको नष्ट कर दो, तो क्या लड़ने वाले बाज आयेंगे ? मुर्गे नहीं तो लोग भेड लड़ा सकते हैं या साड़ों की लडाई में आनंद ले सकते हैं | पहलवान भी टकरा सकते हैं, यहाँ तक कि निर्जीव पतंगें भी लड़ाई जा सकती हैं | न लड़ने वालों की कमी है, न लड़ाने वालों की | बात बात पर झगड़ा निर्माण किया जा सकता है | इसलिए भेद अथवा विकृतियों को दूर करने के लिए व्यवस्था को समाप्त करने के विषय में सोचना मूर्खतापूर्ण है | उसके स्थान पर व्यवस्था को ठीक करना ही एकमेव मार्ग है | दोष लोगों की प्रवृत्ति में होता है, जिसके कारण व्यवस्था का पालन ठीक नहीं हो पाता |
कोई विद्यालय प्रारम्भ हो, उसके लिए अच्छा भवन निर्माण कर दिया जाए, प्रयोगशालाएं बन जाएँ, प्रधानाध्यापक, शिक्षक नियुक्त हो जाएँ, कक्षाएं शुरू कर समय चक्र निर्धारण कर दिया जाए, तब भी क्या विद्यालय ठीक से चल पायेगा ? इतना होने के बाद भी जिस एक बात की जरूरत होगी, वह है शिक्षक और विद्यार्थी के बीच शिक्षा की इच्छा | अध्यापकों में यह आतंरिक अभिलाषा होना कि विद्यार्थियों को उत्तम शिक्षा प्रदान करूंगा और विद्यार्थियों में यह इच्छा होना कि हम अच्छी से अच्छी ज्ञान विज्ञान की बातें सीखेंगे | यह इच्छा न तो किसी थर्मामीटर से मापी जा सकती है और ना किसी दूरवीन से देखी जा सकी है, फिर भी उसका होना आवश्यक है | आतंरिक इच्छा न हो तो बाहरी ढांचा चार कौड़ी का भी नहीं | केवल बाहरी और औपचारिक ढंग से मिलने जुलने, अभिवादन करने, प्रेम का प्रदर्शन करने मात्र से काम नहीं चलेगा |
प्रत्येक मनुष्य की सामाजिक निर्भरता से इनकार नहीं किया जा सकता | व्यक्ति का जीवन समाज पर निर्भर है | हमारे यहाँ इस निर्भरता को परावलंबन के स्थान पर परस्परावलंबन कहा गया | सभी एक दूसरे पर अवलंबित हैं | इससे भी आगे बढ़कर हमारे यहाँ एक दूसरे के अनुकूल होने के विषय में सोचा गया |  अनुकूलता और अवलंबन के अर्थ में बहुत बड़ा अंतर है | अवलंबन में दीनता है, निर्भरता है, किन्तु अनुकूलता में समादर है | जैसे पुत्र पिता पर अवलंबित है और कुछ अर्थों में पिता भी पुत्र पर अवलंबित है | यदि यही सोचकर व्यवहार हो तो एक दूरी बना रहना स्वाभाविक है | किन्तु यदि ऐसा सोचा गया कि पिता और पुत्र दोनों परस्परानुकूल हैं, तो एक का सुख दूसरे का भी सुख होगा | यह परस्परानुकूलता ही हमारे जीवन दर्शन की विशेषता है |
कथा है कि एक बार शरीर के विभिन्न अंगों में संघर्ष छिड़ गया | हाथ, पैर, नाक, कान, आँख, मुंह यहाँ तक कि दांत और जीभ भी अपना अपना महत्व बखान करने लगे | हर एक अपने को सर्वश्रेष्ठ बताकर बारी बारी शरीर से विदा होता गया | हाथों ने काम करना बंद किया, शरीर को कष्ट हुआ, किन्तु किसी प्रकार काम चल गया | हाथों को लगा कि शरीर तो उसके बिना भी काम चला ले गया, उन्होंने हार मान ली | इसी प्रकार बारी बारी से हर अंग ने अपनी शक्ति आजमा ली और फिर भी शरीर का काम ण रुकता देखकर समझ गए कि उनके बिना शरीर चल सकता है, किन्तु शरीर से अलग उनकी स्वयं की कोई सत्ता नहीं | किन्तु इस झगड़े के कारण शरीर की जो फजीहत हुई उस कारण प्राण देवता कहने लगे कि लो इस बार मैं चला | प्राण ने चलने की तैयारी की तो सब अंग शिथिल पड़ने लगे | आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा, पैर लडखडाने लगे, हाथ कांपने लगे, सांस उखड़ने लगी | सब अंग प्राण से कहने लगे कि भाई तुम मत जाओ, तुम्हारे बिना तो हम एक क्षण नहीं रह सकते |
तात्पर्य यह कि शरीर के विभिन्न अंगों में सामंजस्य है इसलिए शरीर की सब आवश्यकताएं पूरी होती हैं | ये परस्पर पूरक ही नहीं बल्कि एक ही हैं | एक ही शरीर के अंग होने के कारण सब अलग अलग होते हुए भी एक हैं | उनकी एकात्मता का कारण है “प्राण” | ठीक इसी प्रकार समाज शरीर में भी एक प्राण होता है | वह है समाज की एकात्म भावना |
सहस्त्रशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात |
स भूमि विश्वतो वृत्वाSत्यतिष्ठत दशान्गुलम ||
ब्राह्मणोंSस्य मुखमासीत बाहू राजन्यः कृतः |
ऊरूतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||
हजारों मस्तक, हजारों बाहू, हजारों नेत्र, हजारों उदर, हजारों जाघें और हजारों पैरों वाला एक पुरुष पृथ्वी पर चारों और फैला हुआ है | ज्ञानी मनुष्य इसके मुख हैं | शूरवीर बाहू हैं, किसान तथा व्यापारी इसके उदर और जांघें है, कारीगर इसके पैर हैं | ज्ञानी, शूर, व्यापारी और शिल्पी मिलकर एक देह है | एक शरीर में जैसी एकात्मता होती है, वैसी एकात्मता इस जनता रूपी पुरुष में होनी चाहिए |
# साधारणतया उत्पादन का आधार व्यक्ति या कुटुंब होना चाहिए | हमें ऎसी प्रणाली को अपनाना होगा जिससे हम कुटुंब की इकाई को ही उत्पादन की इकाई बना सकें | उद्योगों में कुटीर इकाई को ही उत्पादन की इकाई बना सकें | छोटे छोटे उद्योग जो घर में ही चलाये जा सकते हों, हमारे व्यापक औद्योगिकीकरण का कार्यक्रम हो सकते हैं | हाँ, इनमें हम अच्छी से अच्छी मशीनों और बिजली का उपयोग कर सकते हैं |
# भौतिक क्षेत्र के समान ज्ञान के क्षेत्र में भी गुरुत्वाकर्षण नियम लागू होता है | जिसको बड़ा माना उसी की ओर हमारा मन आकर्षित होता है और उसकी क्रियाओं का अनुकरण, विचारों से संवेदना भानाओं के साथ सहानुभूति का भाव लेकर अपने जीवन पर उसकी छाप बिठा लेते हैं |
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरोजनः
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते |
# सहिष्णुता के समान ही जयिष्णुता का सिद्धांत भी आवश्यक है | बिना जयिष्णुता की भावना के कोई समाज न तो जीवित रह सकता और न ही विकास कर सकता है | कोई भी व्यक्ति अथवा समाज केवल श्वासोच्छ्वास के लिए जीवित नहीं रहता, अपितु किसी आदर्श के लिए ज़िंदा रहता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उस आदर्श की रक्षा के लिए अपने जीवन की परिसमाप्ति भी कर देता है | जिनके जीवन में अपने आदर्शों को विजई बनाने की महत्वाकांक्षा है, वे ही संसार के निराशामय वातावरण से ऊपर उठकर कुछ कर पाते हैं तथा दूसरों के लिए प्रकाशपुंज बनकर मार्गदर्शक हो जाते हैं | दुनिया के नए नए देशों की खोज करने वाले, प्रकृति के गुह्यतम सिद्धांतों को ढूंढ निकालने वाले, ब्रह्म और जीव के अभेद का साक्षात्कार करने वाले, दुखी मानवों को शान्ति और सत्य का उपदेश देने वाले, ये सबके सब अपने जीवन में एक महत्वाकांक्षा लेकर आये और उसे प्राप्त करने के निमित्त ही जीवन भर प्रयत्न करते रहे |
विजय के लिए सीमोल्लंघन आवश्यक है | किन्तु आज हमने स्वयं को सीमाओं में बांध रखा है | स्वार्थ और अज्ञान के संकुचित दायरे में हमने कूपमंडूक के समान अपने जीवन को सीमित कर लिया है | हमें अपनी सीमाएं तोड़नी होंगी | जो इन सीमाओं के बाहर नहीं जा सकता, वह विजय भी प्राप्त नहीं कर सकता |
# प्रारम्भिक अवस्था में समाज में मत्स्य न्याय था | जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, उसी प्रकार कमजोर और छोटों की कोई चिंता नहीं करता था | इस स्थिति से चिंतित ऋषि गण मनु महाराज के पास गए तथा उनको राजा बनने को कहा | मनु ने कहा कि यदि मैं राजा बना तो दण्ड हाथ में लेकर लोगों को कष्ट देकर नियंत्रित करना पडेगा | लोगों को दुःख देने का पाप मैं नहीं करना चाहता | तब प्रजापति ने उन्हें समझाया कि सब ओर फैले अधर्म का निवारण करने के लिए जो दण्ड प्रयोग करना होगा, वह अधर्म नहीं धर्म माना जाएगा | उन्होंने व्यवस्था कर दी कि प्रजा के द्वारा किये जाने वाले पूण्य का एक अंश राजा को स्वयमेव प्राप्त होगा | किन्तु राजा पर भी यह बंधन लगाया कि उचित व्यवस्था न कर पाने के कारण यदि प्रजा पाप करने लगेगी तो उसके अधर्म का भाग भी राजा को मिलेगा | यह पहली राज्य व्यवस्था बनी | अतएव यहाँ लोगों ने राजदंड अपने हाथों में लिया तो सत्ता एवं प्रभुत्व के लिए नहीं वरन धर्म संरक्षण के लिए | हमारी मान्यता और पद्धति के अनुसार राज्याभिषेक के समय राजा तीन बार घोषणा करता था, ‘अदंडयोस्मि’, किन्तु उसी समय राज पुरोहित पलाश दण्ड से उसके मस्तक पर स्पर्श प्रहार करते हुए कहता, ‘धर्म ही तेरे लिए दण्ड है’ |अर्थात प्रभुसत्ता धर्म की है | धर्मदण्ड राजा पर भी शासन करेगा |
# भोज के बचपन की एक कथा है | मुंज की आज्ञा से जल्लाद भोज को जान से मार डालने के लिए जंगल में ले गए | जब जल्लाद तलवार से भोज को मारने हेतु उद्यत हुए तो भोज ने अपना एक अंतिम सन्देश मुंज तक पहुंचाने की प्रार्थना की |  जल्लादों ने उनकी बात मान ली | सन्देश था कि “बड़े बड़े प्रथ्वीपति, महीपति, मान्धाता आये और चले गए | राम आये, कृष्ण आये, धर्मराज युधिष्ठिर आये, सबने राज्य भोगा, सब एक एक कर चले गए, किन्तु पृथ्वी जहाँ की तहां रही | किन्तु इस बार ऐसा प्रतीत होता है कि तुम अवश्य यह पृथ्वी अपने साथ ही ले जाओगे |”
राष्ट्र चिंतन
एक काबुली ने कलाकंद के भ्रम में साबुन की बट्टी खरीद ली और खाने लगा | मुंह में पड़ते ही स्वाद से मालूम तो पड गया कि यह साबुन है, फिर भी वह खाता रहा | किसी ने पूछा, “खान क्या खाते हो” ? तो खान ने तपाक से जबाब दिया, “खान क्या खाता है, अपना पैसा खाता है” |
# महर्षि अरविंद के अनुसार –
“Each nation is a Shakti or power of the evolving spirit in humanity and lives by the principles which it embodies.”
अर्थात प्रत्येक राष्ट्र विकासोन्मुख मानवात्मा की एक शक्ति के रूप में अभिव्यक्ति है, तथा वह उन सिद्धांतों के आधार पर ही जीता है, जिनका वह मूर्तिमान रूप है |
भारत की भी अपनी एक प्रकृति है, अपनी एक आत्मा है | उसके साक्षात्कार के बाद ही हम अपनी समस्याओं का समाधान कर सकेंगे, अपने देश की समृद्धि तथा जन के सुख और हित की व्यवस्था कर सकेंगे, तथा मानव की प्रगति में अपना कुछ योगदान दे सकेंगे | अंग्रेजों के जाने के बाद गांधी जी ज्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह पाए, तथा राजसत्ता जिनके हाथ में आई, वे भारत की भाषा और भावना को न तो समझ पाए और ना ही उन्होंने समझना चाहा | अंग्रेजों के जाने से पहले भले ही हमने स्वदेशी का नारा लगाया हो, किन्तु उनके जाने के बाद हमारी आँखों पर अंग्रेजियत का ही चश्मा चढ़ गया | फलतः हमारी राजनीति, अर्थनीति, समाज व्यवस्था, साहित्य और संस्कृति पर अंग्रेजियत की गहरी छाप है | हमारा संविधान भी मुख्यतः 1935 के इंडिया एक्ट का ही थोड़ा सा सजा संवरा रूप है |
विभिन्न राजनैतिक दल भी चाहे वे समाजवादी हों या गैर समाजवादी, योरोप की राजनैतिक विचारधाराओं से ही प्रभावित हैं, तथा वे भारत को किसी न किसी देश की अनुकृति बनाना चाहते हैं | प्रजातंत्र और समाजवाद योरोप की दो भिन्न भिन्न क्रांतियों की देन हैं | पश्चिम में विकसित प्रजातंत्रीय संस्थाओं एवं परम्पराओं के अथवा कार्ल मार्क्स द्वारा प्रकल्पित और लेनिन, स्टालिन आदि द्वारा रूस में प्रयुक्त समाजवाद के बने बनाए ढाँचे में भारतीय जीवन को कसना ठीक नहीं होगा | भारतीय जीवन दर्शन इन दोनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है | भारत पर पश्चिमी राजनीति का प्रक्षेपण करने के स्थान पर हमें अपने ही राजनैतिक दर्शन का विकास करना होगा |
स्वतंत्रता के पश्चात गांधी जी की परंपरा को आगे बढाते हुए तथा भारतीय द्रष्टिकोण से विचार करते हुए, सर्वोदय के विभिन्न नेताओं ने महत्वपूर्ण कल्पनाएँ रखीं | किन्तु आचार्य बिनोबा भावे ने ग्रामदान के कार्यक्रम को जो अतिरेकी महत्व दिया, उससे उनका वैचारिक क्षेत्र का योगदान पिछड़ गया | रामराज्य परिषद् के संस्थापक करपात्री जी महाराज ने भी “कम्यूनिज्म और साम्यवाद” लिखाकर, पाश्चात्य राजनैतिक दर्शनों की मीमांशा की, तथा अपने विचार रखे | किन्तु उनका द्रष्टिकोण मूलतः सनातनी होने के कारण वे सुधारवादी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर पाए | भारतीय जनसंघ ने भी एकात्म मानववाद के आधार पर उस दिशा में कुछ प्रयत्न किया | हिन्दू सभा ने “हिन्दू समाजवाद” के नाम पर समाजवाद की कुछ अलग व्याख्या करने किया, किन्तु वह विवरणात्मक रूप में सामने नहीं आ पाया | डा. संपूर्णानंद ने भी समाजवाद पर जो विचार व्यक्त किये हैं, उनमें भारतीय जीवन दर्शन का अच्छा विवेचन है | चिंतन की इस दिशा को आगे बढाने की आवश्यकता है | 
समाजवाद और प्रजातंत्र दोनों वर्ग संघर्ष में से पैदा हुए हैं | प्रजातंत्र ने राजा और प्रजा के संघर्ष को स्थाई मानकर राजा को समाप्त किया | किन्तु प्रजा के विभिन्न दलों में संघर्ष प्रजातंत्र की स्थाई मान्यता बन गई | समाजवाद ने सस्वत्व और निःस्वत्व के बीच के संघर्ष को आधार बनाया | वर्ग बदल गए पर संघर्ष समाप्त नहीं हुआ | इसका कारण पश्चिम की सभी विचारधाराओं के मूल में विद्यमान डार्विन का जीवन संघर्ष का सिद्धांत है | सृष्टि संघर्ष पर नहीं समन्वय और सहयोग पर टिकी है | अतः वर्ग विरोध और संघर्ष के स्थान पर परस्परावलंबन, पूरकता, अनुकूलता और सहयोग के आधार पर ही समग्र क्रिया कलापों का विवेचन और उनकी भावात्मक दिशा का निर्धारण होना चाहिए |
सिपाही को हथियार इसलिए दिया जाता है, ताकि वह उससे समाज की रक्षा करे | यदि वह अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है तो उसे शस्त्र धारण करने का कोई अधिकार नहीं | चोर और डाकू के पास हथियार नहीं रहने दिए जा सकते | समाज अपने हित के लिए कुटुंब से लेकर राज्य तक तथा विवाह से लेकर संन्यास तक अनेक संस्थाओं का निर्माण करता है | अतः समाजवाद और प्रजातंत्र दोनों की सफलता गैर सरकारी तथा राजनीति निरपेक्ष आन्दोलनों तथा शिक्षा पर निर्भर है | लोक संस्कार का सर्वाधिक महत्व है | दयानंद, गांधी तथा हेडगेवार ने जिस प्रकार प्रेरणा पैदा की, उस ओर यदि देश का ध्यान गया तो समाज की धारणा शक्ति प्रबल होगी | इससे ही राष्ट्र की चिति प्रबल होकर उसका विराट प्रबल होगा | श्रेय और प्रेय दोनों को प्राप्त करने के लिए राष्ट्र को आदर्शवादी बनाना होगा | चिति से इस आदर्श की निश्चिति होगी | इसमें से ही वह विवेक और सामर्थ्य पैदा होंगे जिनसे हम विदेशी प्रभावों से मुक्त होकर, परावलम्बी व परमुखापेक्षी न रह कर, नये विश्व की रचना में अपना योगदान दे सकेंगे | यही हमारी नियति है | यही स्वतन्त्रता की साधना और सिद्धि होना चाहिए |
# समाजवाद, लोकतंत्र और हिंदुत्व
सभी समाजवादियों की यह सर्वमान्य अभिलाषा है कि सामान्य मनुष्य का जीवन स्तर उठाया जाए | स्वामी विवेकानंद जी ने एक भाषण में कहा कि “मैं भी एक समाजवादी हूँ | इसलिए नहीं कि समाजवाद कोई पूर्ण दर्शन है, अपितु इसलिए कि मैं समझता हूँ कि भूखे रहने की अपेक्षा एक कौर मात्र प्राप्त करना भी अच्छा है | सुख दुःख का पुनर्विभाजन सचमुच ही उस स्थिति से अधिक श्रेयस्कर होगा जिसमें निश्चित व्यक्ति ही सुख या दुःख के भागी होते हैं | इस कष्टपूर्ण संसार में प्रत्येक को अच्छा दिन देखने का अवसर मिलना ही चाहिए |”
इस दुःख और कष्टों से परिपूर्ण विश्व में असमानता, अन्याय, दुःख, कष्ट, उत्पीडन, प्रताडन, दासत्व, शोषण, क्षुधा और अभाव को देखकर कोई भी व्यक्ति जिसे मानवीय अंतःकरण प्राप्त है, समाजवादी वृत्ति अपनाए बिना नहीं रह सकता | यहाँ पर मार्क्स का शिष्यत्व स्वीकार करना पड़ता है | वह इस दुखपूर्ण स्थिति का अंत चाहता है | उसने स्थिति का विश्लेषण किया, रोग को समझा और उसके लिए औषधि की भी योजना की | उसने अपने समकालीन समाजवादी विचारों को एकत्रित कर एक ऐसी विस्तृत विचार सारिणी प्रस्तुत की जो आगे आने वाली पीढ़ियों को भी आकर्षित करने की क्षमता रखती थी | उसने एक करनीय योजना प्रस्तुत की और वोल्शेविकों ने उस स्वप्न को साकार करने के लिए सफलता पूर्वक रूस की सत्ता पर अधिकार कर लिया |
समाजवाद का पहला हमला लोकतंत्र पर हुआ | समाजवाद इस बात का हामी है कि कि उत्पादन के समस्त स्त्रोत राज्य के आधीन होने चाहिए | समाजवादी व्यवस्था में राज्य का आर्थिक क्षेत्र के साथ साथ राजनैतिक तथा अन्य क्षेत्रों में भी पूर्ण वर्चस्व रहना आवश्यक है | अतः समाजवाद और लोकतंत्र साथ साथ नहीं चल सकते | आज तक कोई भी विचारक ऐसा सर्वांगपूर्ण दोष रहित चित्र प्रस्तुत करने में सफल नहीं हो सका है, जिसमें इन दोनों तत्वों का सहअस्तित्व संभव हो सके | समाजवाद या साम्यवाद ने सामूहिक सुरक्षा एवं मजदूर वर्ग के हितों के संरक्षण का नारा लगाया किन्तु इसी के साथ साथ उसने एक “युद्ध पिपासु मानव” को जन्म दिया | उसे न विचार करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है न स्वयं के निर्णय करने की | इस व्यवस्था के अंतर्गत मानव जीवन का मूल्य एक निरीह पशु से अधिक नहीं आंका जाता |
लोकतंत्र के विषय में रेनेफुलप ने “दि ह्यूमनाईजेशन इन मॉडर्न सोसायटी” नामक पुस्तक में लिखा है कि “यद्यपि जनतंत्र ने हमें मत देने का अधिकार, न्याय पाने का अधिकार, विचार स्वातंत्र्य, धार्मिक स्वातंत्र्य, स्वयं का पेशा निर्धारित करने की स्वतन्त्रता और भाषण स्वातंत्र्य प्रदान किया है, पर साथ ही उसने हमें उसने एक “आर्थिक मानव” की कल्पना भी दी है” |
इस कल्पना ने पूंजीवाद को जन्म दिया, जहां अधिकाधिक उत्पादन बढाने पर तो अत्याधिक जोर दिया गया, पर सोद्देश्य जीवन व्यतीत करने की क्षमता बढाने की ओर पूर्ण दुर्लक्ष्य कर दिया गया | समाजवाद और लोकतंत्र दोनों ने ही मानव के भौतिक स्वरुप और आवश्यकताओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया और दोनों की आधुनिक विज्ञानं और यांत्रिक उन्नति पर अत्याधिक श्रद्धा है | उत्पादन केन्द्रित व्यवस्था में, फिर उसका नियंत्रण चाहे व्यक्ति द्वारा हो अथवा राज्य द्वारा, मानव के स्वतंत्र अस्तित्व का लोप हो जाता है | मशीन के एक पुर्जे से अधिक उसका महत्व ही नहीं रहता | आज व्यक्ति पर शासन नहीं करता, मशीन मनुष्य पर शासन कर रही है | हमें एक ऐसी पद्धति का निर्माण करना होगा, जिसमें मनुष्य उत्पादन और उपभोग के साथ एक सार्थक जीवन व्यतीत करने का भी ध्यान रखता है | मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं का समुच्चय मात्र ही नहीं है, उसकी कुछ आध्यात्मिक आवश्यकताएं भी हैं |
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों पर आधारित हिन्दू जीवन दर्शन, जीवन को एक इकाई मानकर उसका विचार करता है | आप इसे किसी भी नाम से पुकारिए, हिंदुत्ववाद, मानवतावाद, अथवा अन्य कोई भी नया वाद, किन्तु यही एकमेव मार्ग भारत की आत्मा के अनुरूप होगा | संभव है विभ्रांति के चौराहे पर खड़े विश्व के लिए भी यह मार्गदर्शक का काम कर सके |
# उत्पादन पर अधिक बल देने के कारण अमेरिका आदि देशों में पूंजीवाद का प्रसार हुआ | नव आविष्कृत यन्त्र इस उत्पादन के कारण बने तथा यंत्रों के स्वामी ही उत्पादन के स्वामी भी बन गए | लाभ में जब श्रमिकों को भाग नहीं मिला तब उनमें प्रतिक्रया उत्पन्न हुई और उन्होंने एक नई प्रणाली समाजवाद या साम्यवाद का विकास किया, जिसमें पुनः वितरण पर ही अधिक बल दिया गया और इसके लिए राज्य द्वारा व्यक्ति को कुचल कर रख दिया गया |
समाजवाद और पूंजीवाद ने मनुष्य को व्यवस्था के निर्जीव यंत्र का एक पुर्जा मात्र बना दिया है | एक स्वतंत्र जुलाहे को समाप्त कर उसे विशाल कारखाने का मजदूर बना दिया गया | दर्जी के स्थान पर रेडीमेड कपड़ा लाकर रख दिया गया | दोनों ही व्यवस्थाओं में केवल उत्पादन और वितरण की ओर ही ध्यान दिया गया, उपभोग की ओर पश्चिम के विद्वानों का ध्यान नहीं गया | जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकाधिक उपभोग का सिद्धांत ही मनुष्यों के दुखों का कारण है | वर्ग संघर्ष, जिसके ऊपर पूरा साम्यवाद खडा है, ऐसे उपभोग के कारण ही उत्पन्न होता है | भारतीय मत उपभोग के नियंत्रण द्वारा न्यूनतम उपभोग को आदर्श मानता है |
राजनीति में तानाशाही जिस प्रकार व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता को नष्ट करती है, उसी प्रकार भारी पैमाने पर किये गये उद्योगीकरण के कारण भी अर्थनीति में व्यक्ति की रचनात्मक क्षमता का विनाश होता है | आर्थिक क्षेत्र में विकेंद्रीकरण के माध्यम से उद्योगों की व्यवस्था होना चाहिए | विकेंद्रीकरण में मशीन का परित्याग नहीं समझना चाहिए, इसके लिए मशीन को छोटा जरूर करना पड सकता है | कुछ ऐसे उद्योग भी हो सकते हैं, जो बड़ी मशीनों से ही चल सकते हैं, किन्तु उन पर व्यक्तिगत स्वामित्व के स्थान पर राजकीय स्वामित्व होना चाहिए |
भारतीय संस्कृति में कर्म यानी श्रम को सर्वाधिक महत्व दिया गया है | वेद, पुराण, गीता सभी में यह परिलक्षित होता है | अतः प्रत्येक को श्रम करने का अवसर देना शासन का भी कर्तव्य है | उद्योगीकरण को उद्देश्य मानकर चलना गलत है, उसके स्थान पर प्रत्येक को काम का अधिकार यदि स्वीकार कर लिया जाए तो तो सम वितरण की दिशा निश्चित हो जाती है | इस सिद्धांत के सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –
ज + क + य = इ
यहाँ ज अर्थात काम करने योग्य जन संख्या | क अर्थात कार्य क्षमता, य अर्थात यंत्र और इ अर्थात उपभोग की इच्छा |
आर्थिक क्षेत्र की तीन वस्तुएं हैं, मनुष्य, श्रम और मशीन | इन तीनों का समन्वय ही अर्थ व्यवस्था का उद्देश्य है |
# बुराई का वास्तविक कारण व्यवस्था नहीं मनुष्य है | बुरा व्यक्ति अच्छी से अच्छी व्यवस्था में घुसकर बुराई फैला देगा | समाज की प्रत्येक व्यवस्था या परम्परा किसी न किसी अच्छे व्यक्ति द्वारा प्रारम्भ की गई | परन्तु उसी अच्छी परम्परा पर जब बुरा व्यक्ति आ बैठा तो वहां बुराई आ गई | अतः हमारा ध्यान व्यक्ति की कर्तव्य भावना को जगाने पर केन्द्रित होना चाहिए | हम पूंजीवाद और समाजवाद के चक्कर से मुक्त होकर मानववाद का विचार करें | मानव जीवन के समस्त पहलुओं का विचार कर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन, वितरण और उपभोग के साधन तथा व्यवस्था बनाए |
आजकल राष्ट्रीय आय का विचार औसत के सिद्धांत के आधार पर किया जाता है | पर यह बहुत बड़ा भ्रम है | राष्ट्रीय आय के बढ़ने का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति की आय बढे | यह सत्य है कि कम मनुष्यों का उपयोग करने वाली बड़ी मशीनों के द्वारा भी उत्पादन बढ़ सकता है, पर वह हमारे देश के लिए उपयुक्त नहीं | गांधी जी कहा करते थे, “मैं विशाल उत्पादन चाहता हूँ परन्तु विशाल जनसमूह द्वारा उत्पादन चाहता हूँ” |
बड़ी मशीनों के आधार पर जो उत्पादन बढाने का प्रयास चल रहा है, उससे देश में बेकारी तो बढ़ ही रही है, विदेशी ऋण भी बढ़ता जा रहा है | विदेशी मुद्रा विनिमय की समस्या खडी हो गई है | उसके कारण “उत्पादन करो या मर जाओ” के स्थान पर “निर्यात करो या मर जाओ” हो गया है | हमारी भावी योजनायें निर्यात केन्द्रित होने के कारण जो चीज हम पैदा करते हैं, उसका उपभोग भी स्वयं नहीं कर पाते | विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए चीनी सस्ते मूल्य पर विदेशों में बेचनी पड़ती है, जबकि देश में महंगे मूल्य पर बेची जाती है | अपनी गाय भेंसों को खली और भूसा न खिलाकर हम विदेशों को भेज रहे हैं और दूध के डिब्बों का आयत कर रहे हैं | इसका विचार कर यदि हम अधिक आदमियों का उपयोग करने वाले छोटे छोटे कुटीर उद्योग अपनाएं तो कम पूंजी तथा मशीनों की आवश्यकता होगी, विदेशी ऋण भी नहीं लेना पडेगा तथा देश की सच्ची प्रगति होगी |
#  चिति
जब कोई राष्ट्र परकीय सत्ता के अधीन रहता है तो उस राष्ट्र के नागरिकों की देशभक्ति का एकमेव लक्ष्य उस सत्ता को दूर करना होता है | जनता के दैहिक, दैविक, भौतिक सम्पूर्ण दुखों का मूल परकीय सत्ता को ही कहा जाता है | भले ही समाज कुरीतियों से युक्त हो, पर सबके लिए दोष परकीय सत्ता के ऊपर ही मढा जाता है | राष्ट्र जीवन का प्रत्येक क्षेत्र परकीयों से आक्रान्त होने के कारण किसी के स्वार्थ पर आघात होता है, तो किसी के स्वाभिमान पर चोट होती है, किसी को स्वयं की शक्ति के विकास का अवसर नहीं मिलता, इस प्रकार अपने अपने हितों पर आघात होने के कारण यह विरोधियों का दल खड़ा हो जाता है | अपनी अपनी इच्छाओं की पूर्ती की आशा लेकर, स्वयं को केंद्र मानते हुए, स्वर्णिम भविष्य के स्वप्न लेकर सबके सब पराये राज्य को नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं | उसके लिए त्याग करते हैं, कष्ट सहते हैं, यातनाएं भुगतते हैं | इस दौड़ में जो सबसे आगे निकल जाता है, या अपने आपको प्रदर्शित कर पाता है, वह सबसे बड़ा देशभक्त हो जाता है |
हम तनिक गहराई में जाकर विचार करें कि हम परकीय सत्ता का विरोध हम क्यों करते हैं ? क्या इसीलिए कि परकीय सत्ता के कारण हमारी आर्थिक दशा बिगड़ जाती है ? हमारे यहाँ बेकारी और निर्धनता का साम्राज्य है, हमको बड़ी बड़ी नौकरियाँ नहीं मिलतीं, हमारे व्यक्तिगत स्वाभिमान को ठेस पहुँचती है, आदि, आदि | जो आज परकीय सत्ता का विरोध कर रहा है, कल उसे नौकरी मिल जाए और वह विरोध करना छोड़ दे, तो भी क्या उसे देशभक्त कहा जाएगा ? निर्धन होने के कारण जो आज विरोध में था, कल सत्ता द्वारा खरीद लिया जाए, तो क्या वह हमारी श्रद्धा का केंद्र रहेगा ? देशभक्त तो पद, धन वैभव को ठुकराकर निर्धनता, अभाव और सेवावृत को स्वीकार करता है, इसी में उसकी महानता रहती है |
राष्ट्रीय भावना के इस प्रबल ज्वार से या किसी अन्य कारण से, यदि परकीय सत्ता नष्ट होजाए, या अप्रत्यक्ष होकर आँखों से ओझल हो जाए तो यकायक इस विरोधात्मक राष्ट्रीयता के समक्ष एक बड़ा भारी प्रश्नवाचक चिन्ह आकर खडा हो जाता है | क्या परतंत्र देशों में ही देशभक्त होते हैं ? राष्ट्रीयता के लिए क्या पराधीनता ही आवश्यक है ? तब विचार करना पडेगा कि देशभक्ति क्या है ?
राष्ट्र के प्रति भक्ति तथा अपने राष्ट्र के जनसमूह के प्रति सहानुभूति की भावना का मूल कारण न तो हमारी यह स्वार्थों की एकता है और न शत्रुत्व या मित्रत्व | व्यक्ति की आत्मा के समान राष्ट्र की भी आत्मा होती है जिसके कारण राष्ट्र में एकात्मता फूटती है | राष्ट्र की इस आत्मा को हमारे शास्त्रकारों ने “चिति” कहा है | शरीर के अंगों के एकत्रीकरण भर से जिस प्रकार जीवन नहीं होता, उसमें आत्मा की अवस्थिति ही जीवन और चैतन्य दायक होती है, उसी प्रकार राष्ट्र की सम्पूर्ण एकता, उसका समष्टि जीवन राष्ट्र की आत्मा चिति के कारण होता है | जिस प्रकार आत्म साक्षात्कार व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य होता है और वह हो जाने पर उसे मुक्त कहा जाता है, मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी माना जाता है, उसी प्रकार राष्ट्र को आत्म साक्षात्कार के मार्ग पर ले जाने वाले व्यक्ति ही देशभक्त होता है | हमारे राष्ट्रीय जीवन की चिति को पहचानकर उसको प्राकृत संस्कारों के द्वारा बलवान बनाने का प्रयत्न करने से ही राष्ट्र का चिर कल्याण होगा | तभी हम मानवता की सेवा करने में समर्थ हो सकेंगे और तभी सफल होगा हमारा चिराकांक्षित ध्येय –
सर्वेSपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिददुःखभागभवेत् ||
हमारे राष्ट्र जीवन की चिति क्या है ? हमारी आत्मा का क्या स्वरुप है ? इस स्वरुप की व्याख्या करना कठिन है, उसका तो साक्षात्कार ही संभव है | जिन महापुरुषों ने उसका साक्षात्कार किया उनके जीवन की ओर देखने से, उनके जीवन की क्रियाओं और घटनाओं का विश्लेषण करने से हम अपनी चिति के स्वरुप की कुछ झलक पा सकते हैं | भारतीय राष्ट्र न तो हिमालय से कन्याकुमारी तक फैले हुए इस भूखंड से बन सकता है और ना ही इसमें बसने वाले कोटि कोटि मनुष्यों के झुण्ड से | इन कोटि कोटि जन के समूह को इस विस्तृत भूभाग से बांधने वाला कोई सूत्र है तो वह है “धर्म” | बिना धर्म के भारतीय जीवन का चैतन्य ही नष्ट हो जाएगा |
धर्म के लिए ही श्रवण कुमार अपने अंधे माता पिता को कंधे पर लिए वन वन घूमा और धर्म के लिए ही प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यिपू का विरोध किया | राम ने एक पत्नी वृत का पालन करके धर्म की रक्षा की तो कृष्ण ने अनेकों विवाह करके धर्म का निर्वाह किया | इस प्रकार के विरोधाभासों की निराकृति केवल धर्म को समझकर ही हो सकती है | धर्म को आचरण में लाने वाले बाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसी, सूर, ज्ञानदेव, समर्थ, चैतन्य और नानक कवी थे, संत थे ऋषि थे, इसीलिए उनके शब्द राष्ट्र के शब्द हो गए | हमारे राजनीति विशारद आचार्यों ने भी राजनीति पर धर्म का पुट चढ़ाया | शुक्राचार्य, वृहस्पति, विश्वामित्र या चाणक्य धर्मविहीन राजनीति के पोषक नहीं थे | धर्महीन राजनीति का कोई अर्थ नहीं है | राणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोविन्द सिंह राजनैतिक नेता हैं या धार्मिक ? दयानन्द और विवेकानंद के कार्य का भारत की राजनीति और राष्ट्र पर क्या कोई प्रभाव नहीं है ? गांधीजी के भारतव्यापी प्रभाव के पीछे उनका महात्मापन, उनकी धार्मिकता है या राजनीति ? स्वाधीनता आन्दोलन में फांसी के तख्ते पर गीता की प्रति लेकर चढने वाले क्रांतिकारी वीरों में धार्मिक प्रेरणा थी या राजनैतिक ? हम देखते हैं कि दोनों को अलग नहीं किया जा सकता | हमारी राजनीति हमारी धार्मिक वृत्ति का ही परिणाम है | राजनीति हमारी धार्मिकता की रक्षा करने का साधन मात्र है |
संतानोत्पत्ति हम धर्म समझकर करते हैं तो संतान भी अपने मातापिता की सेवा धर्म समझकर ही करती है | बड़ेबूढों की वंदना करना हमारा धर्म है | नित्य स्नान करना, बिना स्नान भोजन न करना, कुए पर जूते उतार कर जाना, भोजन को स्वच्छता पूर्वक बनाना, सब धर्म से जुडा है | अपने घर में तुलसी धर्म समझकर रखते हैं, मलेरिया नाशक समझकर नहीं | स्वच्छता और स्वास्थ्य के सब नियम धर्म बन गए हैं | कृषक बीज बोता है तो उसके पीछे भी धार्मिक भावना छुपी हुई रहती है | जीवन के प्रत्येक कृत्य को हमने धार्मिक रंग में रंगा है | धर्म से प्रेरणा लेकर ही हमने अपनी जीवन रचना की है | इसीलिए अनेक विद्वानों ने कहा है कि भारत एक धर्म प्राण देश है | आज अपनी इस आत्मा की प्रेरणा को अचेतन से चेतन में लाने पर ही राष्ट्र जीवन में दिखाई देने वाली विकृति, संघर्ष व अनिश्चितता दूर की जा सकती है |
# आँखों को वासना का मूल समझकर सूरदास ने आँखें फोड़ ली थीं | आज विश्व के अनेक विचारक सूरदास बनना चाहते हैं |
हरिद्वार के कुम्भ मेले में भारी भीड़ को देखकर एक अमेरिकन यात्री ने पंडित मदन मोहन मालवीय जी से पूछा कि इस मेले के लिए प्रचार में कितना व्यय हुआ होगा और कौन कौन से उपाय अपनाए गए ? मालवीय जी ने पंचांग खोलकर जिस स्थान पर कुम्भ पर्व का उल्लेख था, वह दिखाते हुए कहा कि “हमारा यही प्रचार है, और इस एक लाईन के छापने में क्या खर्च हुआ होगा, इसका अंदाज आप स्वयं लगा लें” |
# धर्म
धर्म वही है जो सबके लिए लाभकर हो, मोक्ष का मार्ग जिससे प्रशस्त होता हो, धर्म की जो साधारण व्याख्या की गई है वह है “धारणात धर्ममाहुः” | धारणा से धर्म है | अर्थात जिस चीज के कारण, जिस शक्ति के कारण, जिस भाव के कारण, जिस व्यवस्था के कारण कोई चीज टिके वह धर्म है | इसलिए सम्पूर्ण प्रजा, जनसमाज और उससे भी आगे अगर बढ़ना हो तो सृष्टि, जिससे यह टिकें वह है धर्म | अपने यहाँ धर्म का प्रतीक बैल बताया | बैल अपने चार पैरों के सहारे टिकता है | कल्पना कीजिए कि बैल का एक पैर टूट जाए तो वह कैसे चलेगा ? दो टूट जाएँ तो और भी कठिनाई | और तीन टूट जाएँ तो बिलकुल ही गिर पडेगा | बैल ठीक प्रकार से खडा रहे, चलता फिरता रहे इसके लिए उसके चारों पैर आवश्यक हैं | तो धर्म का अर्थ है धारणा | उसके पीछे की मूल धारणा है कि वह टिक सके |
शरीर की धारणा के लिए भिन्न भिन्न अवस्था में अलग धर्म हैं | एक सज्जन गरमी के दिनों में लखनऊ गए | वहां एक पुराने नबाब मलमल का कुर्ता पहिनकर, टोपी लगाकर, शाम के समय इत्र बगैरह लगाकर घूमते थे | उन्होंने इनसे कहा कि तुम तो बिलकुल गाँव के आदमी दिखते हो | यह सुनकर इन महाशय ने भी कुर्ता सिलवाकर नबाब साहब की तरह घूमना शुरू कर दिया | दो तीन महीने बाद सर्दी के मौसम में गाँव वापस आये | सोचा कि गाँव के लोग कुछ नहीं जानते समझते, इसलिए वे सुबह पांच बजे अपना कुर्ता पहिनकर इत्र बगैरह लगाकर घूमने निकले | गाँव का एक बूढा रजाई ओढ़े बैठा था, उसने पूछा बेटा कहाँ जा रहे हो ? इन्होने जबाब दिया घूमने | बूढ़े ने कहा ऐसे जाओगे तो बीमार पड जाओगे | इन्होने कहा वाह वाह कैसे पड़ जायेंगे ? नहीं माने, गए और निमोनिया हो गया | अब शाल ओढ़कर लेटना पडा | उनका यह हाल क्यों हुआ ? क्योंकि उन्होंने काल का विचार नहीं किया |
किस समय कैसा व्यवहार करना चाहिए इसका विचार करना पड़ता है | धर्म यानी शरीर की धारणा के नियम समय और परिस्थिति के अनुसार बदलेंगे | शरीर के साथ बुद्धि है, मन है इन सबके बीच सामंजस्य बैठाने के नियम बनाए जाते हैं | पर नियम जीवन की सब चीजों को लेकर नहीं चल सकते | अनेक स्थितियां ऐसी भी आती हैं, कि जब नियम नहीं मिलते | ऐसी स्थिति के लिए कहा गया है “मनः पूतम समाचरेत” | मन आपको बताएगा, उसके अनुसार व्यवहार करिए | प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार मन, बुद्धि, शरीर सबका सामंजस्य बैठ सके इसका विचार करना चाहिए | व्यक्ति अकेला भी है और अनेक भी | उसका दूसरों के साथ भी सम्बन्ध आता है | जिसके कारण भाई भाई के बीच, पति पत्नी के बीच, पिता पुत्र के बीच जिससे सामंजस्य बैठे, तालमेल हो, वे मिलकर काम करें, उनके बीच का संघर्ष मिटे, विरोध कम हो, वे एक दूसरे को चाहते हुए काम कर सकें वह सब चीज वास्तव में धर्म है |

अब व्यक्ति और राष्ट्र के बीच में जिससे मेल बैठ सके वह राष्ट्र और व्यक्ति के बीच का धर्म है | राष्ट्र के साथ सम्पूर्ण मानव समाज है | इस मानव समाज के साथ भी सामंजस्य होना चाहिए | हमारा राष्ट्र ऊंचा हो जाए, शेष मानव समाज का नुक्सान हो जाये, यह भावना भी हमें अपेक्षित नहीं | हमें तो संसार के प्रत्येक प्राणी का विचार करना है | यहाँ तक कि मूक पशु पक्षियों का भी | इन सबके बीच में संघर्ष की भूमिका समाप्त कर सामंजस्य की भूमिका पैदा करने से ही सृष्टि चलेगी | इतना ही नहीं यहाँ पर प्रकृति है, पेड़ हैं पौधे हैं, उनके साथ भी सामंजस्य बैठाकर रखना आवश्यक है | यही धर्म है | एक व्यक्ति के अन्दर शरीर धारण से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि तक जितने भी भिन्न भिन्न नाते रिश्ते आते हैं, उनके बीच सामंजस्य बैठाने का काम धर्म का है | हमारे यहाँ धर्म के जो दस लक्षण बताये गए हैं, क्षमा, अस्तेय (चोरी न करना), शौच, इन्द्रिय निग्रह, सत्य, बुद्धि, विद्या आदि वे सब सामंजस्य पूर्ण सर्व सुखकारी व्यवस्था के लिए ही हैं |
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2 टिप्पणियाँ

  1. हम सभी को महापुरुषों के बतिये सिखाये दिखाये सुझाये
    गये डगर पर चलना और अनुसरण करना होगा।परन्तु अवसर वादी देश को विघटनकारियो से सजगता के साथ
    देश और समाज को आगे बढाने की नयी दशा और दिशा पर
    को केन्द्र में रखकर परख कर आगे कदम बढाना होगा।

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