विवेकानंद साहित्य - ६
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- गौरक्षण सभा के एक उद्यमी प्रचारक स्वामी जी के दर्शनों के लिए आये तथा उन्हें रोगग्रस्त, दुर्बल और कसाईयों के हाथों से बचाई हुई गौओं के पालन हेतु किये जा रहे अपने प्रयत्नों के विषय में जानकारी दी | उन्होंने यह भी बताया की मारवाड़ी वैश्य वर्ग इस कार्य हेतु विशेष सहायता देता है | स्वामी जी ने पूछा कि इस वर्ष भयंकर दुर्भिक्ष पडा है, सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग नौ लाख लोग अन्न के अभाव में मर गए हैं | आपकी सभा ने इस दुर्भिक्ष में कोई सहायता का प्रयत्न भी किया है क्या ? प्रचारक महोदय ने उत्तर दिया – हम दुर्भिक्ष इत्यादि में कोई सहायता नहीं करते | केवल गौ माता की रक्षा के उद्देश्य से ही यह सभा स्थापित हुई है | स्वामी जी ने कहा – आपके देखते देखते इस दुर्भिक्ष में आपके लाखों भाई कराल काल के चंगुल में फंस गए | पास में बहुत सा नगद रुपया होते हुए भी क्या आप लोगों ने एक मुट्ठी अन्न देकर इस भीषण दुर्दिन में उनकी सहायता करना अपना कर्तव्य नहीं समझा ? प्रचारक ने जबाब दिया – मनुष्य के पाप कर्मफल से यह दुर्भिक्ष पडा है | जैसे कर्म वैसा फल | इस जबाब को सुनते ही स्वामी जी की क्रोधाग्नि भड़क उठी | उन्होंने तमतमाकर कहा – जो सभा समिति मनुष्यों से सहानुभूति नहीं रखती, अपने भाईयों को भूखा मरते देखकर भी एक मुट्ठी अन्न की सहायता नहीं कर सकती, मुझे उनसे कोई सहानुभूति नहीं | कर्मफल की दुहाई देने से तो जगत के सारे उद्यम ही व्यर्थ हो जायेंगे | फिर तो यह भी कहा जा सकता है कि गौ माताएं भी अपने कर्मफल से ही कसाईयों के पास पहुँचती हैं | अतएव उनकी रक्षा भी निष्प्रयोजन है |
- ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ऋग्वेद को छपवाने के लिए नौ लाख रुपये नगद दिए | इतना ही नहीं तो सैकड़ों वैदिक पंडितों को मासिक वेतन देकर इस कार्य हेतु नियत किया गया | मेक्समूलर ने इसकी भूमिका में लिखा कि इसको लिखने में २५ वर्ष लगे और फिर छपवाने में २० वर्ष | इस प्रकार ४५ वर्ष तक वे केवल एक ही पुस्तक में लगे रहे | इसीलिये विवेकानंद उन्हें ऋषि सायण का पुनर्जन्म कहते थे |
- समाधी की उन्मुख अवस्था में अनुभव होता है कि जगत शब्दमय है, फिर वह शब्द गंभीर ओमकार ध्वनी में लीन हो जाता है | तत्पश्चात वह भी नहीं सुनी पड़ता | इसीकी अनादी नाद कहते है | इस अवस्था से आगे ही मन प्रत्यक ब्रम्ह में लीन हो जाता है | बस सब निर्वाक, स्थिर |
- हिमालय में भ्रमण करते समय एक पहाडी गाँव में स्वामी जी ठहरे | सायंकाल ढोल की ध्वनी होने पर लोगों ने बताया कि किसी मनुष्य पर देवता चढ़ा है | घर बाले के आग्रह और कौतुहलवश वे देखने गए | एक घुंघराले बाल बाले व्यक्ति पर देवता चढ़ा मानकर आग में लाल कुल्हाड़ी से उसके शरीर व बालों को स्पर्श कराया जा रहा था | किन्तु उस व्यक्ति के चहरे पर या शरीर पर उसका कोई प्रभाव नहीं हो रहा था | स्वामी जी अवाक रह गए | तभी गाँव के मुखिया ने आकर प्रार्थना की कि वे उस व्यक्ति का देवता उतार दें | विवश स्वामी जी को उस व्यक्ति के पास जाना पड़ा | उन्होंने पहले शंका निवारण के लिए कुल्हाडी को स्पर्श किया | उनका हाथ झुलस गया | अपने दर्द को काबू में कर उन्होंने उस देवाताविष्ट मनुष्य के सर पर हाथ रखकर कुछ देर जप किया | वह व्यक्ति तो ठीक हो गया, किन्तु स्वामी जी को कुछ पल्ले नहीं पड़ा | बाद में उन्होंने लिखा – “There are more things in heaven and earth than dreamt of in your philosophy”. ‘प्रथ्वी और स्वर्ग में ऐसी अनेक घटनाए हैं, जिनका संधान दर्शनशास्त्रों ने स्वप्न में भी नहीं पाया |’
- एक बार स्वप्न में स्वामी जी ने देखा कि उनकी माँ का देहांत हो गया | वे उस समय मद्रास में थे | मन्मथ बाबू जिनके यहाँ वे ठहरे थे, उन्होंने कलकत्ता तो समाचार जानने के लिए तार भेजा, किन्तु एक पिशाच सिद्ध व्यक्ति से मिलने की भी सलाह दी, जिसके विषय में प्रसिद्ध था कि वह भूत भविष्य की बातें बता सकता है | कुछ दूर रेल से तथा कुछ दूर पैदल चलकर वहां पहुंचे | पहुंचा कर उस मृतक समान, दुर्बल काले व्यक्ति को देखा | कुछ समय तो उस व्यक्ति ने इन लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु जब ये वापस लौटने लगे तो इन्हें बुलाया | साथ गए आलासिंगा ने मद्रासी में उसे अपने आने का प्रयोजन बताया | वह कुछ देर तो पेन्सिल से कुछ लिखता रहा, फिर मन को एकाग्र कर स्थिर हो गया | उसके बाद विवेकानंद जी के नाम गोत्र, विगत १४ पीढी की जानकारी, माताजी का मंगल समाचार और धर्म प्रचार के लिए विदेश गमन आदि बातें बताईं जो कालान्तर में सत्य सिद्ध हुई |
- एक दिन श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के बगीचे में नरेंद्र को स्पर्श किया | उनके स्पर्श करते ही घरबार, दरवाजा- बरामदा, पेड़- पौधे, चन्द्र- सूर्य, सभी मानो आकाश में लीन होने लगे | फिर आकाश भी जाने कहाँ विलीन हो गया | भयभीत नरेंद्र चीत्कार कर उठे –“अरे तुम मेरा यह क्या कर रहे हो जी, मेरे माँ बाप भी हैं” | इस पर श्री रामकृष्ण ने हंसते हुए फिर स्पर्श किया और कहा – “अच्छा अच्छा तो रहने दे” | धीरे धीरे सब कुछ यथावत हो गया |
- प्रत्येक आत्मा एक वृत्त है, इसका केंद्र वहां होता है, जहां शरीर है, और वहीं उसका कार्य प्रगट होता है | अतः आत्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, तथा केंद्र किसी शरीर में है | जबकि परमात्मा एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं किन्तु केंद्र सर्वत्र है |
- ईसा ने अपने श्रोताओं की क्षमता के अनुसार अपने उपदेशों को समायोजित किया | उन्होंने प्रारंभ में एक स्वर्गस्थ पिता से प्रार्थना करने की शिक्षा दी | बाद में उन्होंने कहा – मैं अंगूर की लता हूँ और तुम सब उसकी शाखाएं हो | और अंत में उन्होंने परम सत्य का उपदेश दिया – मैं और मेरे पिता एक हैं और स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है |
- मेरी यह चिर धारणा है कि पश्चिमी देशों की सहायता के बिना हम लोगों का अभुत्थान नहीं हो सकेगा | इस देश में न तो गुणों का सम्मान है और न आर्थिक बल, और सर्वाधिक सोचनीय बात है कि व्यावहारिकता लेश मात्र भी नहीं है |
इस देश में साध्य तो अनेक हैं, किन्तु साधन नहीं | मस्तिष्क तो हैं पर हाथ नहीं | हम लोगों के पास वेदान्त मत है, लेकिन उसे कार्यरूप में परिणित करने की क्षमता नहीं | हमारे ग्रंथों में सार्वभौम साम्यवाद का सिद्धांत है, किन्तु कार्यों में महाभेद वृत्ति है | महा निःस्वार्थ निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, परन्तु हमारे कर्म अत्यंत निर्मम और अत्यंत ह्रदयहीन हुआ करते हैं | अपनी मांसपिंड की इस काया को छोड़कर, अन्य किसी विषय में हम सोचते ही नहीं |
फिर भी प्रत्युत अवस्था में ही हमें आगे बढ़ते चलना है, दूसरा कोई उपाय नहीं | वीर तो वही है जो भ्रम प्रमाद तथा दुखपूर्ण संसार तरंगों के आघात से अविचल रहकर एक हाथ से आंसू पोंछता है और दूसरे अकम्पित हाथ से उद्धार का मार्ग प्रदर्शित करता है | एक ओर प्राचीन पंथी जड़पिंड समान समाज है और दूसरी ओर चपल अधीर आग उगलने बाले सुधारक वृन्द हैं | इनके बीच का मध्यम मार्ग ही श्रेयस्कर है | मैंने जापान में सुना कि वहां की लड़कियों को विश्वास है कि यदि उनकी गुड़ियों को ह्रदय से प्यार किया जाए तो वे जीवित हो उठेंगी, इसलिए वे अपनी गुड़ियों को कभी नहीं तोड़तीं | मेरा भी विश्वास है कि यदि हतश्री, अभागे, निर्बुद्धि, पददलित, चिरबुभुक्षित, झगडालू और ईर्ष्यालू भारतवासियों को भी कोई ह्रदय से प्यार करने लगे तो भारत पुनः जाग्रत हो जाएगा | भारत तभी जागेगा जब विशाल ह्रदय बाले सैकड़ों स्त्री पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन, वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के कल्याण के लिए सचेष्ट होंगे जो दरिद्रता और मूढ़ता के महासागर में निरंतर नीचे डूबते जा रहे हैं |
भारत भूमि में जनसमुदाय को कभी भी आत्म स्वत्व बुद्धि को उद्दीप्त करने का मौका नहीं दिया गया | कौलीन्यप्रथा से लेकर खानपान तक सभी विषय राजा ही निबटाते आये हैं | परन्तु पश्चिमी देशों में सभी कार्य जनता स्वयं करती है | जो आत्मविश्वास वेदान्त की नींव है, उसका व्यवहार में रूपांतरण यहाँ नहीं हो सका है | यहाँ सार्वजनिक वादविवाद के द्वारा किसी बड़े कार्य को सिद्ध करने का प्रयत्न भी निरर्थक है | क्योंकि विषय की चर्चा में ही सारी ऊर्जा समाप्त हो जायेगी, उसे कार्य रूप में परिणित करने को कुछ बचेगा ही नहीं |
मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ कि जिस जाती की जनता में विद्या बुद्धि का जितना अधिक प्रचार है, वह जाती उतनी ही अधिक उन्नत है | भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या बुद्धि, राजशासन मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई है | यदि हमें फिर से उन्नति करनी है, तो हमें जनता में विद्या का प्रसार करना होगा |
यहाँ मुसलमान कितने सिपाही लाये थे ? यहाँ अंग्रेज कितने हैं ? चांदी के छः सिक्कों के लिए अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरने बाले लाखों आदमी सिवा भारत के और कहाँ मिल सकते हैं ? सात सौ वर्षों के मुसलमान शासन में छः करोड़ मुसलमान, और सौ वर्षों के ईसाई राज्य में बीस लाख ईसाई क्यों बने ? क्यों हमारे सुदक्ष शिल्पी यूरोप वालों के साथ बराबरी करने में असमर्थ होकर दिनोंदिन लोप होते जा रहे हैं ? लेकिन वह कौन सी शक्ति थी जिससे जर्मन कारीगरों ने अंग्रेज कारीगरों के कई सदियों से जमे हुए दृढ आसन को हिला दिया |
केवल शिक्षा | शिक्षा | शिक्षा | यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमते हुए वहां के गरीबों के अमन चैन को देखकर मुझे भारत के गरीब देशवासियों की याद आती थी और मैं आंसू बहाता था | शिक्षा और आत्मविश्वास से उनका ब्रम्ह भाव जाग गया है, जबकि हमारा क्रमशः निद्रित और संकुचित हो गया है | न्यूयार्क में मैं आईरिश उपनिवेशवासी को आते देखता था – पददलित, कांतीहीन, अति दरिद्र और महामूर्ख | हाथ में एक लाठी और उसके सिरे पर लटकी हुई फटे कपड़ों की एक छोटी सी गठरी | उसकी चाल में भय और आँख में शंका होती थी | छः महीने में ही यह द्रश्य बिलकुल दूसरा हो जाता था | अब वह तनकर चलता था, उसका वेश बदल गया था, उसकी चितवन में पहले का वह डर दिखाई नहीं पड़ता | एसा परिवर्तन कैसे हुआ ? हमारा वेदान्त कहता है – वह आईरिश अपने देश में चारों तरफ घृणा से घिरा हुआ रहता था – सारी प्रकृति उससे एक स्वर से कह रही थी कि बच्चू तेरे लिए और कोई आशा नहीं है, तू गुलाम ही पैदा हुआ और सदा गुलाम ही बना रहेगा | आजन्म सुनते सुनते बच्चू को उसीका विश्वास हो गया | बच्चू ने स्वयं को सम्मोहित कर डाला कि वह अतिनीच है | इससे उसका ब्रह्मभाव संकुचित हो गया | परन्तु जब उसने अमरीका में पैर रखा तो चारों ओर से ध्वनी उठी – “बच्चू तू भी वही आदमी है जो हम लोग हैं | आदमियों ने ही सब काम किये हैं, तेरे और मेरे समान आदमी ही सब कुछ कर सकते हैं | धीरज धर |” बच्चू ने सर उठाया और देखा कि बात तो ठीक है – बस उसके अन्दर सोया हुआ ब्रह्म जाग गया | मानो स्वयं प्रकृति ने ही कहा हो – “उठो, जागो, रुको मत, जब तक मंजिल पर ना पहुँच जाओ |”
वैसे ही हमारे लडके जो शिक्षा पा रहे हैं, वह नकारात्मक है | स्कूल में लडके कुछ नया नहीं सीखते, वरन जो खुद का है उसका भी सत्यानाश हो जाता है | और उसका परिणाम होता है – श्रद्धा का अभाव | जो श्रद्धा वेद वेदान्त का मूल मन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को साहस दिया प्रत्यक्ष यम से प्रश्न करने का, जिस श्रद्धा के बल पर यह संसार चल रहा है, उसी श्रद्धा का लोप | अब उपाय है – शिक्षा का प्रसार | किन्तु पहले आत्म ज्ञान | इससे मेरा आशय जटाजूट, दंड-कमंडल या गिरिकन्दरा नहीं है | जिस आत्म ज्ञान से मनुष्य संसार बंधन तक से छुटकारा पा जाता है, उससे क्या तुच्छ भौतिक उन्नति नहीं हो सकेगी ? इस जीवात्मा में अनंत शक्ति अव्यक्त भाव से विद्यमान है, इस शक्ति को सर्वत्र जा जाकर जगाना होगा |
हमारे देश में हजारों निस्वार्थ दयालू और त्यागी पुरुष हैं, उनमें से कम से कम आधों को आवश्यकता के अनुरूप पहले शिक्षा के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है | इसके लिए पहले प्रत्येक प्रांत की राजधानी में एक केंद्र स्थापित हो | बाद में धीरे धीरे भारत के सब स्थानों में फैलना होगा | गरीबों को शिक्षा प्रायः मौखिक ही दी जानी चाहिए | धीरे धीरे उन केन्द्रों में खेती, उद्योग आदि भी सिखाये जाएँ और शिल्प की उन्नति के लिए शिल्प गृह भी खुलें | यहाँ उत्पादित माल यूरोप और अमरीका में बेचने के लिए उन देशों के समान संस्थाएं खोली जायेंगी |
इन सब कामों के लिए जिस धन की आवश्यकता है, वह इंग्लेंड आदि पश्चिमी देशों से ही आना होगा | क्योंकि मुझे दृढ विश्वास है कि जिस सांप ने काटा है, वही अपना विष भी उतारेगा |
इसलिए हमारे धर्म का यूरोप और अमरीका में प्रचार होना चाहिए | आधुनिक विज्ञान ने ईसाई आदि धर्मों की भित्ति चूर चूर कर दी है | इसके अतिरिक्त विलासिता तो मानो धर्म वृत्ति का ही नाश करने पर तुली हुई है | यूरोप और अमेरिका आशाभरी नज़रों से भारत की ओर देख रहे हैं | शत्रु के किले पर अधिकार जमाने का यही उपयुक्त समय है | इंग्लेंड पर भी हम लोग आध्यात्म के बल पर अधिकार कर लेंगे, उसे जीत लेंगे – नान्यः पन्थाः विद्यतेSयनाय – इसके सिवा मुक्ति का दूसरा मार्ग ही नहीं | क्या सभा समितियों के द्वारा भी कभी मुक्ति मिल सकती है ? यह केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही संभव है | इसीसे देश का भला होगा | विस्तार ही जीवन का चिन्ह है | हमें सारी दुनिया में अपने आध्यात्मिक आदर्शों का प्रचार करना होगा | अब इंग्लेंड, अमरीका और यूरोप पर विजय पाना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए | (श्रीमती सरला घोषाल को लिखित पत्र दिनांकित २४ – ०४ – १८९७ के अंश)
- एक तरुण युगल के पति पत्नी बनने में सबसे बड़ा अवरोध लड़की का पिता था, जो इस बात पर अडा था कि वह अपनी लड़की की शादी किसी करोड़पति से ही करेगा | हताश तरुण युगल की सहायता हेतु एक मध्यस्थ उपस्थित हुआ | उसने लडके से पूछा - वह दस लाख रुपये में अपनी नाक दे सकता है ? युवक ने ना कहा | एसा ही उसने विभिन्न अंगों के विषय में पूछा | युवक का उत्तर हर बार “ना” ही रहा | मध्यस्थ ने जाकर लड़की के पिता को शपथपूर्वक कहा की लड़का करोडपति है और शादी संपन्न हो गई |
- हमारी मातृभूमि के लिए हिंदुत्व और इस्लाम का सामंजस्य – वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर – यही एक आशा है | (स्वामी जी द्वारा मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखित पत्र दिनांकित १०-०६-१८९८ का अंश)
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