विवेकानंद साहित्य - ७



१. यदच्युत – कथालाप – रस – पीयूष – वर्जितं / यद्दिनम हरिसंलाप कथा पीयूष वर्जितं |

तद्दिनम दुर्दिनम मन्ये मेघाच्छन्नम न दुर्दिनम ||

२. एक गरीब मनुष्य ने देवता से वर प्राप्त किया था | देवता ने प्रसन्न होकर कहा – तुम ये पांसा लो | इस पांसे को तुम तीन बार तीन कामनाओं से फेंक सकते हो, वे तीनों कामनाएं पूरी हो जायेंगी | गरीब खुशी से झूमता हुआ अपनी पत्नी के पास पहुँचा और उसके साथ परामर्श करने लगा कि क्या वर मांगना चाहिए | स्त्री ने कहा – धन दौलत मांगो | किन्तु पति ने कहा – देखो, हम दोनों की नाक चपटी है, उसे देखकर लोग हमारी बड़ी हंसी करते हैं | अतएव पहली बार पांसा फेंककर सुन्दर नाक की प्रार्थना करनी चाहिए | दोनों में खूब वहस होने लगी | झुंझलाए पति ने पांसा फेंककर कहा कि हम लोगों को तो सुन्दर नाकें चाहिए और कुछ नहीं | और ये क्या दोनों के शरीर पर ढेरों नाकें उत्पन्न हो गईं | अब दोनों परेशान कि ये क्या विपत्ति आई | इस बार पांसा फेंककर कहा नाक चली जाएँ | और नाक चली गईं, पर अब एक भी नहीं बची | जो गाँठ की थी, बह भी गायब | दोनों बहुत परेशान | अब सोचा कि अगर अच्छी नाक मांग भी ली, तो लोग देखकर पूछताछ करेंगे | अगर लोगों को पूरी बात पता चली तो सब मूर्ख कहकर मजाक बनायेंगे | इससे अच्छा है कि जैसी पहले थी, बैसी ही नाक मांग ली जाए | जैसे ही पुरानी नाक आई तो दोनों ने राहत की सांस ली और भगवान को धन्यवाद दिया कि हे प्रभु तुमने जो दिया है उससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता, वही सबसे अच्छा है |

३. वासना मदिरा पान कर समस्त जगत मत्त हुआ है | जैसे दिन और रात एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही वासना और भगवान दोनों एक साथ कभी नहीं रह सकते | इसलिए वासना का त्याग करो | केवल खाना खाना चिल्लाना और वास्तव में अन्न ग्रहण करना, अथवा केवल जल जल चिल्लाना और वास्तव में जल पीना – इन दोनों के बीच जमीन आसमान का अंतर है; अतएव केवल ‘ईश्वर ईश्वर’ कहकर चिल्लाने से ईश्वर की प्रत्यक्ष उपलव्धि की आशा कभी भी नहीं की जा सकती | हमें ईश्वर लाभ करने की चेष्टा तथा साधना करनी होगी |

४. बंगाल के एक सुदूर गाँव में १८ फरवरी सन १८३६ को एक निर्धन ब्राह्मण दंपत्ति के घर श्री रामकृष्ण देव का जन्म हुआ | उनके पिता अत्यंत निष्ठावान ब्राह्मण थे, जो ब्राह्मणों की एक जाती विशेष को छोड़कर अन्य किसी का दान भी नहीं ग्रहण करते थे | जीविकोपार्जन के लिए सर्वसाधारण व्यक्ति के समान वे कोई काम भी नहीं कर सकते थे | पुस्तकें बेचना या किसी के यहाँ नौकरी करना तो दूर की बात है, किसी देव मंदिर में पौरोहित्य करना भी उनके लिए संभव नहीं था | उनकी वृत्ति आकाशी वृत्ति थी | जो अयाचित भाव से उपस्थित होता था, उससे ही उनके भोजन वस्त्र का निर्वाह होता था, किन्तु यह भी वे किसी पतित ब्राह्मण से नहीं लेते थे |

बचपन से ही यह बालक कुछ विलक्षण था | उसे अपने पूर्व जन्म का स्मरण था तथा वह यह भी जानता था कि उसने इस संसार में किस उद्देश्य की पूर्ती के लिए जन्म लिया है | जब वह बालक बिलकुल छोटा था, तभी उसके पिता का देहांत हो गया | इसके बाद उसे पाठशाला भेजा गया | उन दिनों शिक्षा दान प्रायः निशुल्क ही थी | गुरूजन अपने विद्यार्थियों को भोजन और वस्त्र भी देते थे | रईस लोग विवाह संस्कार, श्राद्ध संस्कार आदि अवसरों पर गुरुजनों को जो दान दक्षिणा आदि देते थे उनसे इन पाठशालाओं का संचालन हो जाता था | जब किसी रईस परिवार में कोई मंगल प्रसंग होता, तब ये गुरुजन वहां आमंत्रित किये जाते और उनमें भिन्न भिन्न विषयों पर चर्चा भी होती | ऐसे ही एक समारोह में बालक रामकृष्ण भी अपने गुरु के साथ गए, और उनके सामने भी विद्वानों में शास्त्र और ज्योतिष आदि के भिन्न भिन्न विषयों पर वाद विवाद हुआ | बालक को लगा कि यह सब विवाद इसलिए हो रहा है, क्योंकि जो अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करेगा उसे सर्वाधिक सुन्दर वस्त्र तथा अधिक धन, दक्षिणा में प्राप्त होगा | यही ध्येय है जिसके लिए सब लड़ रहे हैं | बालक को लगा कि लौकिक शिक्षा का अर्थ अधिकाधिक धन संचय के अतिरिक्त कुछ नहीं है | उसने उसी दिन पाठशाला को छोड़कर आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति में लग जाने का दृढ निश्चय कर लिया |

किन्तु विद्वान् बड़े भाई रामकृष्ण को पढ़ाने के लिए अपने साथ कलकत्ते ले आये | किन्तु पारिवारिक स्थिति अत्यंत विपन्न होने के कारण श्री रामकृष्ण एक मंदिर में पुजारी होने के लिए बाध्य हुए | मंदिर में जगज्जननी माँ काली की मूर्ती प्रतिष्ठित थी | प्रतिदिन माँ काली की सेवा अर्चन करते करते इन तरुण पुरोहित पर भक्ति का ऐसा उद्रेक हुआ कि वे मंदिर में पूजा आदि करने में भी असमर्थ हो गए | उनके मन में प्रश्न उठने लगे कि क्या सचमुच यह जगत जगन्माता ही संचालित करती हैं ? क्या वे वास्तव में हैं ? यदि हैं तो क्या मैं उन्हें देख सकता हूँ ? वह रोता और मूर्ती से पूछता – माँ तू कुछ बोलती क्यों नही, मुझे कुछ तो जबाब दे | अंत में वे मंदिर छोड़कर नजदीक ही गंगा जी के किनारे स्थित एक जंगल में जाकर दिन रात ध्यान धारणा करने लगे | एक दिन दैवयोग से कुटीर के लिए आवश्यक सामग्री भी गंगा जी की प्रबल धारा में बहकर आ गई | उसे ईश्वरीय प्रसाद मानकर कुटीर बनाकर सदा प्रार्थना करने और रोने लगे | जगन्माता को छोड़कर अन्य किसी विषय का ध्यान उन्हें नही रहा, यहाँ तक कि अपने शरीर की भी चिंता छूट गई | उनका एक आत्मीय प्रतिदिन दोपहर में आकर उन्हें भोजन करा जाता था | कुछ दिनों के बाद एक सन्यासिनी आकर उनकी सहायता करने लगीं | उन्हें जिस प्रकार के गुरू की आवश्यकता होती थी, वे स्वयं उन्हें प्राप्त हो जाते थे | सभी सम्प्रदाय के साधुओं के उपदेश सुनने का उन्हें अवसर मिला | किन्तु उनकी भक्ति भावना केवल जगन्माता के प्रति रही | वे सभी में जगन्माता को ही देखते थे |

श्री रामकृष्ण ने कभी किसी के विरुद्ध कड़े शब्दों का प्रयोग नहीं किया | उनका ह्रदय इतना उदार था कि वे सभी सम्प्रदायों को अपना ही मानते थे | उनकी द्रष्टि में सभी धर्म सत्य थे – वे कहते थे, धर्म जगत में सभी धर्मों का स्थान है | उनकी अवस्था जब ४० वर्ष की थी, तब उन्होंने उपदेश करना प्रारम्भ किया | किन्तु वे प्रचार के लिए कहीं बाहर नहीं गए | उपदेश ग्रहण करने की इच्छा से जो उनके पास आते, उन्ही की वे प्रतीक्षा करते |

उन्होंने धन कभी न छूने का प्रण कर लिया था | यह विचार कि धन मैं कभी न छुऊँगा उनके शरीर का मानो अंश ही बन गया था | एक बार नरेंद्र ने परीक्षा लेने के लिए निद्रावस्था में उनका हाथ एक सिक्के से छुआ दिया – तुरंत उनका हाथ टेढा पड गया, मानो लकवा मार गया हो |

तत्कालीन प्रथा के अनुसार उनके परिवार जनों ने यौवन काल के प्रारम्भ में ही उनका विवाह एक पांच वर्षीय बालिका के साथ कर दिया था | विवाह के उपरांत यह बालिका बहुत दूर के एक ग्राम में अपने परिवार बालों के साथ रहती थी | उसे ज्ञात नहीं था कि उसका तरुण पति किन कठोर संघर्षों में व्यस्त है | जब वह सयानी हुई, उस समय उसका पति भगवत्प्रेम में तन्मय हो चुका था | वह पैदल ही अपने गाँव से दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पति के सम्मुख उपस्थित हुई | पति को देखते ही वह उनकी वास्तविक स्थिति को समझ गई, क्योंकि वह स्वयं भी अत्यंत विशुद्ध और उन्नत स्वभाव की थी | उसने अपने पति को गृहस्थ जीवन की ओर खींचने की नहीं वरन मात्र उनकी सहयोगी बनने की इच्छा व्यक्त की, जो श्री रामकृष्ण ने उन्हें प्रदान कर दी | वे ही उनकी पहली शिष्या बनीं |

समीप ही एक चांडाल जाती का परिवार रहता था, जिनका कार्य शहर की सडकों तथा घरों की साफ़ सफाई करना हुआ करता था | किन्तु रामकृष्ण ने उस चांडाल के घर में दासकर्म करने की अनुमति माँगी, किन्तु चांडाल ने उसकी अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्हें लगता था कि एक ब्राह्मण से इस प्रकार का कार्य लेना घोर पाप होगा, जिससे उनका परिवार ही नष्ट हो जाएगा | किन्तु रामकृष्ण आधी रात को उसके घर में घुस जाते और अपने बड़े बड़े बालों से ही घर को बुहार आते और कहते – हे जगन्माता मुझे यह अनुभव करने दो कि मैं दासानुदास हूँ, मेरे अहम् को पूर्णतः समाप्त कर दो माँ | आत्मशुद्धि के लिए की जाने बाली उनकी अनेक साधनाओं में से यह भी एक थी |

५. आधुनिक भारत में अंग्रेजी शासन का एक ही सान्त्वनादायक पक्ष है कि अनजाने ही भारत को पुनः विश्व रंगमंच पर लाकर खड़ा कर दिया है, किन्तु जब मुख्य ध्येय खून चूसना हो तो कोई कल्याण नहीं हो सकता | कुछ सौ आधुनिक, अर्ध शिक्षित एवं राष्ट्रीय चेतना शून्य पुरुष ही वर्तमान अंग्रेजी शासन का दिखावा है | यह आज की स्थिति है कि शिक्षा को भी अब अधिक फ़ैलने नहीं दिया जाएगा | प्रेस की स्वतंत्रता का गला तो पहले ही घोंट दिया गया है | स्वशासन का जो थोडा अवसर हमको पहले दिया गया था, शीघ्रता से छीना जा रहा है | निर्दोष आलोचना में लिखे गए कुछ शव्दों के लिए लोगों को कालापानी की सजा दी जा रही है, अन्य लोग बिना कोई मुकदमा चलाये जेलों में ठूंसे जा रहे हैं | कुछ वर्षों से भारत में आतंकपूर्ण शासन का दौर है | अंग्रेज सिपाही हमारे देशवासियों का खून कर रहे हैं, हमारी बहनों को अपमानित कर रहे हैं – हमारे खर्च से ही यात्रा का किराया और पेंशन देकर स्वदेश भेजे जाने के लिए | हम लोग घोर अन्धकार में हैं | मान लो तुम इस पत्र को केवल प्रकाशित भर कर दो – तो उस क़ानून का सहारा लेकर जो अभी अभी भारत में पारित हुआ है, अंग्रेजी सरकार मुझे यहाँ से भारत घसीट ले जायेगी और बिना किसी कानूनी कार्यवाही के मुझे मार डालेगी | और तुम्हारी सभी ईसाई सरकारें इस पर खुशियाँ मनाएंगी | एक ईसाई के लिए गैर ईसाई की ह्त्या भी एक वैधानिक मनोरंजन है | (रिजले मैनर न्यूयार्क से कुमारी मेरी हेल को लिखित पत्र दिनांकित ३० अक्टूबर १८९९)
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