विवेकानंद साहित्य - ४
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टिप्पणियाँ
- प्रत्येक धर्म और देश के सभी दुर्बल और अविकसित बुद्धिबाले मनुष्य अपने आदर्श से प्रेम करने का एक ही उपाय जानते हैं, और वह है – अन्य सभी आदर्शों से घृणा करना | ....मतान्ध व्यक्ति अपनी सारी विचारशक्ति खो बैठता है |..... जो व्यक्ति अपने मत वाले लोगों के प्रति दयालु है, भला और सज्जन है, सहानुभूतिसम्पन्न है, वही अपने सम्प्रदाय के बाहर के लोगों के प्रति बुरे से बुरा काम करने में भी ना हिचकेगा | पर यह खतरा भक्ति की केवल निम्नतर अवस्था में रहती है, जिसे ‘गौणी’ कहते हैं | परन्तु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे ‘परा’ कहते हैं, तब इस प्रकार की कट्टरता और भयानक मतान्धता की आशंका नहीं रह जाती | इस परा भक्ति से अभिभूत व्यक्ति प्रेम स्वरुप भगवान के इतने निकट पहुँच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा विकरण का यंत्र स्वरुप नहीं हो सकता | ....आध्यात्मिक अनुभूति का एक छोटा सा कण भी टनों थोथी बकबासों और अंधी भावुकता से कहीं बढकर है |
- एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल ढालने पर जिस प्रकार वह एक अखंड धारा में गिरता है, उसी प्रकार भगवान के निरंतर स्मरण को ध्यान कहते हैं | भगवान के सतत चिंतन में लगा मन पराभक्ति की अवस्था प्राप्त कर लेता है | चेतसोवर्तनन्चैव तेलधारासमं सदा – देवी भागवत |
- अनु माने पश्चात, रक्ति माने आसक्ति, अर्थात वह आसक्ति जो भगवान के स्वरुप, महिमा के ज्ञान के पश्चात हो, अनुरक्ति कहलाती है |
- हम वर्त्तमान में जो कुछ हैं, वह पूर्व जन्म के विचारों और कर्मों का फल है | भविष्य में जो होंगे वो वर्त्तमान के कर्मों और विचारों के फलस्वरूप होंगे |
- सूर्य को प्रकाश में लाने के लिए मशाल की क्या आवश्यकता ?
- जिस प्रकार मिट्टी के एक पिंड को जान लेने से मिट्टी की सब चीजों का ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार देह पिंड को जानकर विश्व व्रम्हांड का ज्ञान हो सकता है |
- सीपी समुद्र की तह छोड़कर स्वाति नक्षत्र के पानी की एक बूँद लेने के लिए ऊपर उठ आती है और मुंह खोले हुए सतह पर तैरती रहती है, ज्योंही उसमें उस नक्षत्र का एक बूँद पानी पड़ता है, त्योंही वह मुंह बंद कर एकदम समुद्र की तह में चली जाती है और जब तक उस बूँद से सुन्दर मोती का निर्माण नहीं हो जाता, तब तक वहीं विश्राम करती रहती है |
- श्रीनाथे जानकी नाथे अभेदः परमात्मनि, तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचनः |
- सबसे बसिए, सबसे रसिये, सबका लीजिये नाम, हांजी हांजी करते रहिये, बैठिये अपने ठाम |
- जहां राम तहां काम नहीं, जहां काम नहीं राम, तुलसी कबहूँ हॉट नहीं रवि रजनी इक ठाम ||
- अहिंसा की कसौटी है – ईर्ष्या का अभाव | कोई व्यक्ति भले ही क्षणिक आवेश में आकर या किसी अंधविश्वास से प्रेरित होकर कोई भला काम कर डाले, अथवा खासा दान पुण्य कर दे, पर मानवजाति का सच्चा प्रेमी तो वह है, जो किसीके प्रति ईर्ष्या भाव नहीं रखता | वहुधा संसार में बड़े कहलाने बाले लोग भी चांदी के चंद टुकड़ों के लिए या नाम और कीर्ति के चलते ईर्ष्या करने लगते हैं | जब तक यह ईर्ष्या भाव मन में है, तब तक अहिंसा भाव में प्रतिष्ठित होना बहुत दूर की बात है | गाय मांस नहीं खाती, और न भेड़ ही, तो क्या वे बहुत बड़े योगी हो गए, अहिंसक हो गए ? एरा गैरा कोई भी विशेष चीज खाना छोड़ सकता है, किन्तु उससे घान्साहारी पशुओं के समान ही कोई विशेषता नहीं प्राप्त कर लेता | जो मनुष्य निर्दयता पूर्वक विधवाओं, और अनाथ वालक वालिकाओं को ठग सकता है, जो थोड़े से धन के लिए जघन्य से जघन्य कृत्य करने में नहीं हिचकता, वह तो पशु से भी गया बीता है – फिर चाहे वह घांस खाकर ही क्यों न रहता हो | जिसके ह्रदय में किसी के प्रति अनिष्ट विचार तक नहीं आता, जो अपने बड़े से बड़े शत्रु की उन्नति पर भी आनंद मनाता है, वही वास्तव में भक्त है, वही योगी है और वही सबका गुरू है – फिर भले ही वह प्रतिदिन सूकर मांस हूँ क्यों न खाता हो | बाह्य कियायें आतंरिक शुद्धि के लिए सहायक मात्र हैं | पर धिक्कार है उस व्यक्ति को, धिक्कार है उस राष्ट्र को, जो धर्म के सार को तो भूल जाता है किन्तु बाह्य अनुष्ठानों को कसकर पकडे रहता है |
- भक्तियोग की प्राप्ति का साधन है “अनवसाद” – दुःखरहित, प्रसन्नचित्त, बली | श्रुति कहती है – नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ||मुंडकोपनिषद || “बलहीन व्यक्ति आत्मलाभ नहीं कर सकता” | शरीर और मन में जो अद्भुत शक्तियां निहित हैं, किसी योगाभ्यास के द्वारा यदि वे थोड़ी भी जाग्रत हो गईं तो दुर्बल व्यक्ति तो बिलकुल नष्ट हो जाएगा | अतएव शारीरिक बल नितांत आवश्यक है | अत्यंत दुर्बल व्यक्ति यदि कोई योगाभ्यास आरम्भ कर दे तो संभव है वह किसी असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो जाए | इसी प्रकार दुर्बल चित्त व्यक्ति भी आत्मलाभ नहीं कर सकता | जो व्यक्ति भक्त होना चाहता है, उसे सदा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए | प्रसन्नचित्त व्यक्ति ही अध्यवसायशील हो सकता है | दृढ संकल्प वाला व्यक्ति हजारों कठिनाईयों में से भी अपना रास्ता निकाल लेता है | इस मायाजाल को काटकर अपना रास्ता बना लेना सबसे कठिन कार्य है, और यह केवल प्रबल इच्छासंपन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं | परन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना आवश्यक हैकि मनुष्य कहीं अत्याधिक आमोद-प्रमोद में मस्त ना हो जाए | अत्यंत हास्य कौतुक हमें गंभीर चिंतन के अयोग्य बना देता है | उससे मानसिक शक्ति व्यर्थ ही क्षीण हो जाती है | अत्याधिक आमोद उतना ही बुरा है, जितना गंभीर उदासी का भाव | जब मन सामंजस्यपूर्ण, स्थिर और शांत रहता है, तभी सब प्रकार की आध्यात्मिक अनुभूति संभव होती है |
- हरि अर्थात जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करे |
- जिस प्रकार किसी चुम्बक की चट्टान के पास जहाज के पहुँचने पर उस जहाज की सारी कीलें तथा लोहे की छड़ें खिंचकर निकल जाती हैं, और जहाज के तख्ते आदि खुलकर पानी पर तैरने लगते हैं, उसी प्रकार प्रभु की कृपा से आत्मा के सारे बंधन दूर हो जाते हैं और वह मुक्त हो जाती है |
- शैतान भी अपनी कार्य सिद्धि के लिए शास्त्रों को कोट कर सकता है और करता भी है | इस तरह यह प्रतीत होता हैकि ज्ञान माग जिस प्रकार साधू व्यक्तियों के सत्कार्य का प्रबल प्रेरक है, उसी प्रकार असाधु व्यक्तियों के भी कार्य का समर्थक है | ज्ञानयोग में यही एक सबसे बड़े खतरे की बात है | परन्तु भक्तियोग बिलकुल स्वाभाविक और मधुर है | भक्त उतनी ऊंची उड़ान नहीं भरता, जितनी किएक ज्ञानयोगी | औ इसलिए उसके बड़े खड्डों में गिरने की आशंका भी नहीं रहती |
- सांसारिक प्रेम में प्रेमी अपनी प्रेमिका की प्रत्येक बस्तु को बड़ी प्रिय मानता है | यहाँ तक कि कपडे के एक छोटे से टुकडे को भी वह प्यार करता है | इसी प्रकार जो मनुष्य भगवान को प्रेम करता है, उसके लिए सारा संसार पिय हो जाता है, क्योंकि यह संसार आखिर उसीका तो है |
- प्रकृति उस फ्रांसीसी जैसी है, जिसने एक अंग्रेज मित्र को निमंत्रित किया था और बताया था कि मेरे तहखाने में पुरानी शराब रखी हुई है | उसने पुरानी शराब की एक बोतल मंगाई | बढ़िया शराब बोतल के भीतर सोने जैसी दमक रही थी | नौकर ने गिलास में शराब ऊंडेली और अंग्रेज चुपचाप पी गया | नौकर ले आया था अंडी के तेल की बोतल | हम लोग हर वक्त अंडी का तेल पी रहे हैं |
- अमरीका में कुछ लोग पियानो बजाते हैं और गाते हैं “व्लूलालेंड” | अमेरिका विशाल देश है | मेरा देश दुनिया के उस पार है | लेकिन यह “व्लूलालेंड” कहाँ है, मैंने नहीं देखा | तुम किसी भूगोल में नही पाओगे | किन्तु कुछ लोग “व्लूलालेंड” से आये अपने पूर्वजों को देखकर बड़े आश्वस्त होते हैं | वही पुराने सडियल विश्वास |
- रस्सी को भूल से सांप समझकर एक व्यक्ति भयभीत हो उठा और उसने सांप मारने के लिए दूसरे को मदद के लिए पुकारा | उसका दिल धड़क रहा था, शरीर काँप रहा था | ये सारी अभिव्यक्तियाँ भय के कारण हुई, किन्तु जैसे ही उसे ज्ञात हुआ की जिसे वह सांप समझ रहा है वह रस्सी है, उसका भय समाप्त हो गया | रस्सी को देखकर सांप समझने बाला भ्रम में नहीं था | भ्रमित रहा होता तो उसे कुछ भी दिखाई नही देता | केवल एक वस्तु को दूसरी समझ लिया गया था | जब सांप देखा तो रस्सी विलीन हो गई और जब रस्सी दिखी सांप कहीं नहीं था | इसी प्रकार संसार को देखने बाले भगवान को नहीं देख पाते |
- संसार के समस्त दुखों का मूल इन्द्रियाँ हैं | वही आग जो रसोई में खाना बनाने के काम आती है, नादान बच्चे को जला भी देती है | तो क्या इसमें आग का कोई दोष है ? अग्नि अग्नि है, यदि तुम उसमें अपनी उंगली जला लो तो यह तुम्हारी मूर्खता है | यदि रसोई में भोजन बनाओ और अपनी भूख मिटाओ तो यह समझदारी | इतना सा ही भेद है | इसी प्रकार संसार संसार है | परिस्थितियाँ भी ना अच्छी होती हैं ना बुरी | मनुष्य ही अच्छा या बुरा हो सकता है | संसार को भला या बुरा कहने का क्या अभिप्राय ?
- अनंत, अज्ञेय और अज्ञात से परिसीमित हमारा यह संसार | इस अनंतता की खोज, अनुसंधान में ही तथ्य है, इसीसे प्राप्त प्रकाश को संसार धर्म कहता है | हिन्दू मान्यता के अनुसार धर्म कहीं बाहर से नहीं आता, व्यक्ति के अभ्यंतर से ही उदित होता है | बेसुरी ध्वनियों में समसुरता का स्वर, जो सुनना चाहे सुन सकता है | वर्तमान काल में सबसे बड़ा प्रश्न है – अगर ज्ञात और ज्ञेय जगत से परे कुछ अनंत अज्ञेय है भी तो हम उसे जानने का प्रयत्न क्यों करें ? जो ज्ञात है उसमें ही संतुष्ट क्यों न रहें ?
किन्तु हम अज्ञात के विषय में जिज्ञासा किये बिना नहीं रह सकते | जो वर्तमान है, व्यक्त है, वह तो अव्यक्त का एक अंश मात्र है | ऐसी स्थिति में उस अनंत विस्तार को समझे बिना यह नन्हा सा प्रक्षेपित भाग कैसे समझा जा सकता है ? सक्रेटिस ने एक व्राह्मण से कहा कि मनुष्य के अध्ययन का सबसे महत्वपूर्ण विषय मनुष्य ही है | इस पर व्राह्मण ने तुरंत उत्तर दिया, “ईश्वर को जाने बिना तुम मनुष्य को कैसे जान सकते हो ?”
अगर हम जगत के परे तत्व को न जानें तो जीवन रेगिस्तान बन जाएगा, मानव जीवन निस्सार हो जाएगा | यह कहना अच्छा लगता हैकि प्रस्तुत क्षण की वस्तुओं में ही संतुष्ट रहो | गाय और कुत्ते तो वैसे संतुष्ट हैं ही | सभी जानवर जिस तरह संतुष्ट हैं, बैसे ही यदि मनुष्य भी संतुष्ट रहे तो मानव जाती को फिर पशुत्व के धरातल पर जाना होगा | यह धर्म ही है, परे की खोज जो मनुष्य को पशु से प्रथक करती है |
धर्म रोटी में नहीं है, मकान में नहीं है | उच्च स्तर की वस्तुएं निम्न स्तरीय मापदंड से नहीं मापी जातीं | मनुष्य वर्तमान में जो है, वह इस धर्म की ही शक्ति से हुआ है और भविष्य में यह मनुष्य नामक प्राणी उससे ही देवता भी बनेगा | मानव समाज से धर्म को हटा दो तो संसार हिंस्त्र पशुओं से घिरा अरण्य बन जाएगा |
आजकल लोग कहते हैं मनुष्य दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है, किन्तु उसके समक्ष एसा कोई विन्दु नहीं जिसे पूर्णतम विकास का प्रतीक मान लिया जाए | सतत आगे बढ़ाते रहो, पर पहुँचो कहीं नहीं | इसे कितना ही अद्भुत क्यों न समझा जाये, है अनर्गल ही | यदि सीधी रेखा अनंत तक बढाई जाए तो वृत्त ही बन जायेगी | जहां से यात्रा शुरू हुई बहीं जा पहुंचेंगे | ऐसे विकास का क्या अर्थ ? यदि हम उस देवी सत्ता से एक हो चुके तो फिर इस अर्थ में और आगे प्रगति नहीं हो सकती | ज्ञान का अर्थ है उस दैवीय सत्ता से एकत्व की उपलव्धि | रसायनशास्त्री सभी ज्ञात तत्वों को उनके मौलिक तत्वों में विश्लेषित करना चाहते हैं, जिससे वे उद्भूत हुए | ऐसा समय आ सकता है, जब वे इस एक तत्व की खोज कर लें | उसका पता चल जाने पर वे और आगे नहीं जा सकेंगे | रसायनशास्त्र पूर्ण हो जाएगा | ठीक वही बात आध्यात्मिक विज्ञान के साथ भी है | रसायनविद जिस प्रकार से स्थूल से सूक्ष्म की खोज जारी रखे हुए हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक विज्ञान में भी अनंत का ज्ञान सूक्ष्म आत्मज्ञान से ही संभव है | इसी खोज में भारतीय मनीषी युगों तक सक्रीय रहे और सफल भी हुए |
- यदि तुम्हारे पास मिट्टी का एक वर्तन है और तुम उस पर आघात करो, तो वह विनष्ट हो जाएगा | इसका तात्पर्य यह हैकि जिन उपादानों से वर्तन बना था, वे अपने मूल रूप में लौट जाते हैं | कपिल ने युगों पूर्व कहा था – समस्त विनाश कारण में प्रत्यावर्तन मात्र है | विनाश का तात्पर्य सूक्ष्मतर अवस्था में प्रत्यावर्तन मात्र है |
- बुद्धि शरीर की समस्त शक्तियों का कारण है | इसके अंतर्गत अवचेतन, चेतन एवं अतिचेतन सब आ जाते हैं | अवचेतन की अवस्था हम पशुओं में पाते हैं, जिसे जन्मजात प्रवृत्ति कहते हैं | पशु खाद्य और विषाक्त वनस्पतियों में सहज भेद कर लेते हैं | किन्तु यह जन्मजात प्रवृत्ति बहुत सीमित होती है | किसी नई बस्तु को वह नहीं समझ पाता | वह यंत्रवत कार्य करता है | इसके बाद ज्ञान की अपेक्षाकृत उच्च चेतन अवस्था आती है, जिसमें भूल और गलतियाँ तो होती हैं किन्तु उसका क्षेत्र व्यापक होता है | इसे हम तर्क या बुद्धि की संज्ञा देते हैं | मन की इससे भी ऊंची अवस्था को अतिचेतन कहा जाता है, जो केवल योगियों में होती है | इसकी शक्ति अमोघ है | यह उच्चतम अवस्था है |
- नाटकघर में जब आग लग जाती है, तब थोड़े से ही लोग बाहर निकल पाते हैं | जल्दी निकालने के चक्कर में सब एक दूसरे को कुचल डालते हैं | जो दो तीन लोग बाहर निकले होते हैं उनकी रक्षा के लिए किसी को कुचलना आवश्यक नहीं था | यदि सब धीरे धीरे बाहर निकले होते तो किसी को चोट नही लगती | यही हाल जीवन का है | द्वार हमारे लिए खुले पड़े हैं, और हम सब बिना किसी प्रतियोगिता या संघर्ष के, बाहर निकल सकते हैं; किन्तु फिरभी हम संघर्ष करते हैं | हम अपने अज्ञान से, अपनी अधीरता से संघर्ष की सृष्टि कर लेते हैं | हम बड़े जल्दबाज़ हैं – हममें धीरज बिलकुल है ही नहीं | शक्ति की उच्चतम अभिव्यक्ति है – स्वयं को प्रशांत रखना |
- कोई राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता किपार्लियामेंट ने यह या वह पास कर दिया है | वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं |
- धर्म के सब रूपों में एक सार भाग और एक असार भाग होता है | यदि हम उनसे असार को अलग कर दें तो सब धर्मों का वास्तविक आधार बच रहता है, जो धर्म के सब रूपों में सामान्यतः मिलता है | हम उसे गोड, अल्लाह, जिहोबा, चेतना, प्रेम जो चाहे कहें | यह वही एक है, जो समस्त जीवन को, उसके न्यूनतम रूप से लेकर मनुष्य में उसकी उच्चतम अभिव्यक्ति तक, सबको अनुप्राणित करता है | यही एकता है जिस पर हमें बल देना चाहिए | जबकि पश्चिम में और वास्तव में सभी जगह, मनुष्य की प्रवृत्ति असार पर बल देने की रही है | वे इन रूपों के लिए, अपने साथियों को सहमत बनाने के लिए, आपस में लड़ते हैं, एक दूसरे की ह्त्या करते हैं, जबकि सारतत्व ईश्वर का प्रेम और मनुष्य का प्रेम ही है |
- जब तुमने हाथी बेच दिया, तो अंकुश के ऊपर झगडा क्यों करते हो ? राजनीतिज्ञों के झगड़े बहुत विचित्र होते हैं | धर्म को राजनीति में पहुँचने में अभी युग लगेंगे |
- नाइंटीथ सेंचुरी के एक अंक में प्रो. मेक्समूलर ने लिखा – श्री रामकृष्ण का जन्म हुगली जिले में १८३६ ई. में हुआ और उनकी मृत्यु १८८६ ई. में हुई | केशवचन्द्र सेन और दूसरे लोगों के जीवन पर उनका बहुत गंभीर प्रभाव पडा | अपने शरीर को संयमित करके और अपने मन को जीतकर उन्होंने आध्यात्मिक संसार में आश्चर्यजनक गहरी पैठ प्राप्त की थी | उनका चेहरा, उनकी शिशुवत कोमलता, गंभीर नम्रता और कथन की उल्लेखनीय मधुरता सबकुछ असाधारण था | उसे देखकर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था |
- सीपी में चांदी की धारणा अथवा रस्सी में सर्प का भ्रम जिस प्रकार मन की एक विशेष स्थिति में सत्य प्रतीत होता है, उसी प्रकार की स्थिति वस्तुतः वास्तविक दिखने बाले इस जगत की भी है | वस्तुतः विश्व उसी प्रकार कल्पना मात्र है जैसे बंध्यापुत्र, या शश श्रंग | शंकर ने उपदेश किया कि व्यक्ति की वर्तमान चेतना में विश्व वास्तविक है, किन्तु जब चेतना उच्चतर रूप ग्रहण करती है, तो यह अंतर्ध्यान हो जाता है | आप एक वृक्ष के तने को अपने सामने खडा देखते हैं और उसे भ्रमवश भूत समझते हैं | कुछ समय के लिए भूत का विचार सत्य होता है, पर ज्योंही आपको उसके तने होने का पता चलता है, भूत का विचार समाप्त हो जाता है |
- ईसाई मत ईसा के अभाव में, इस्लाम मुहम्मद के बिना, बौद्धमत बुद्ध के बिना खडा नहीं रह सकता, पर हिन्दू धर्म किसी व्यक्ति पर आश्रित नहीं है | पुराणों के दार्शनिक सत्य के मूल्यांकन के उद्देश्य से इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है कि वे वास्तविक हाड मांस के मनुष्य थे अथवा काल्पनिक पात्र | पुराणों का उद्देश्य मनुष्यों को शिक्षा देना है और जिन ऋषियों ने उनकी रचना की है, उन्होंने कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों को लिया, उनके ऊपर अपनी इच्छा के अनुसार सर्वोत्तम अथवा सबसे हीन गुणों का आरोपण किया और मनुष्य जातिके आचरण के लिए नैतिक नियम निर्धारित किये |
- यूरोपीय राष्ट्रों की बहिर्मुखी शक्ति जिस यूनानी मस्तिष्क का परिचय देती है, उसका और हिन्दू आध्यात्मिकता का संयोग, भारत के लिए एक आदर्श समाज होगा | उदाहरण के लिए आपके वास्ते यह नितांत आवश्यक हैकि अपनी शक्ति निरर्थक बातें बनाते हुए नष्ट करने के स्थान पर, आप अंग्रेजों से नेताओं की आज्ञा का तुरंत पालन, ईर्ष्याहीनता, अथक लगन और अटूट आत्मविश्वास की शिक्षा प्राप्त करें | यहाँ भारत में प्रत्येक व्यक्ति नेता बनना चाहता है, आज्ञापालन करने बाला कोई भी नहीं है | हमारी ईर्ष्याओं का कहीं अंत नहीं है | ईर्ष्या से बचना तथा आज्ञापालन करना सीखना, इसीमें से संगठन की क्षमता आती है | अन्यथा अव्यवस्थित भीड़ भर रहती है | भारत को यूरोप से बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सीखना है और यूरोप को भारत से अन्तःप्रकृति की विजय सीखना होगी | तब ना हिन्दू होंगे ना यूरोपियन | होगी आदर्श मानव जाति, जिसने बाह्य और अन्तः, दोनों प्रकृतियों को जीत लिया होगा |
- वेदांती आदर्शों को संत और पापी, ज्ञानी और मूर्ख, ब्राह्मण और चांडाल के नित्य प्रति के व्यवहारिक जीवन में प्रतिष्ठित करना ही मेरी कार्ययोजना |
- मुसलमान इतिहास लेखक फ़रिश्ता के अनुसार जब मुसलमान पहले पहल यहाँ आये तब हिन्दुओं की संख्या साठ करोड़ थी, जबकि आज हम लोग बीस करोड़ है | हिन्दू धर्म में से जब एक व्यक्ति बाहर जाता है तब उससे केवल हमारा एक व्यक्ति कम नहीं होता, वरन एक शत्रु भी बढ़ता है | जो हिन्दू – मुसलमान या ईसाई बने हैं, उनमें से अधिकांस या तो तलवार के भय से बने हैं या जो इस प्रकार बने हैं उनके वंशज हैं | इन लोगों पर किसी प्रकार की अयोग्यता आरोपित करना अन्याय होगा | उन लोगों के लिए जो कश्मीर और नेपाल के सामान विजय के द्वारा हमसे अलग कर दिए गए या जो नए सम्मिलित होना चाहते हैं, किसी प्रकार के प्रायश्चित का विधान नहीं करना चाहिए | लौटने बाले लोग अपनी पूर्व जाती प्राप्त कर लेंगे और नए लोग अपनी बना लेंगे | वैष्णव धर्म में ऐसा पहले किया जा चुका है | विभिन्न जातियों से आए हुए और बाहर के लोग एक झंडे के नीचे मिले और अपनी जाती बना ली – और वह भी बहुत आदरणीय | रामानुज से लेकर बंगाल के चैतन्य तक सभी महान वैष्णव आचार्यों ने यही किया |
- सत्यमेव जयते नानृतम | सत्येन पन्थाः विततो देवयानः | - “सत्य की ही केवल विजय होती है, असत्य की नहीं | ईश्वर की और जाने का मार्ग सत्य में से है |” (अथर्ववेद)
- एक अमेरिकन जहाज पानी भरने के कारण डूब रहा था, लोग हताश हो चुके थे और अंतिम सांत्वना के रूप में वे चाहते थे कि धार्मिक उपासना की जाए | जहाज पर एक ‘अंकल जोश’ थे, जो प्रेसबिटेरियन चर्च के गुरूजन थे | सबने उनसे अनुनय की कि सभी लोग मरने बाले हैं अतः वे कुछ धार्मिक उपचार करें | ‘अंकल जोश’ ने अपना हेट हाथ में लिया और शीघ्र ही ढेर सारा चन्दा इकट्ठा लिया | धर्म के विषय में वे केवल इतना ही जानते थे |
- मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयंतः |
परगुणपरमाणु पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसंतः सन्ति सन्तः कियन्तः ||
(ऐसे साधू कितने हैं, जिनके कार्य, मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य अर्थात अत्यंत स्वल्प गुण को भी पर्वत जैसा विशाल बताकर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं ||भर्तहरि||)
- इस दुनिया में जितने भी लोग है सब अपवित्र हैं तथा उन लोगों के संस्कार ऐसे हैं की उनसे धर्मानुष्ठान हो ही नहीं सकता | केवल मात्र कुछ भारतीय ब्राह्मण लोग ही धर्मानुष्ठान कर सकते हैं | शाबास कितना शक्तिशाली धर्म है | केवल मैं पवित्र शेष सब अपवित्र, इससे अधिक पैशाचिक, राक्षसी तथा नारकीय सोच क्या होगा ? ... भोग करते समय ब्राह्मणेतर जाति के स्पर्श में कोई दोष नहीं होता – भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है | देहि देहि की रट लगाना तथा चोरी बदमाशी करना – किन्तु हैं धर्म के प्रचारक | धन कमाएंगे, सर्वनाश करेंगे, साथ ही यह भी कहेंगे हमें ना छूना | यदि आलू का बेंगन से स्पर्श हो जाए तो कितने समय में यह ब्रम्हांड रसातल को पहुँच जाएगा ? चौदह बार हाथ मिट्टी से नहीं धोये तो पूर्वजों की चौदह पुश्तें नरकगामी होंगी अथवा चौबीस ? इन उलझनपूर्ण प्रश्नों की मीमांशा में ये लोग दो हजार वर्षों से लगे हुए हैं, जबकि दूसरी ओर जनता का एक चौथाई भाग भूखा मर रहा है | आठ वर्ष की वालिका का विवाह तीस वर्ष के पुरुष के साथ करके कन्या के माता पिताओं के आनंद की सीमा नहीं रहती |.... फिर इस काम में बाधा पहुँचाने पर वे कहते हैं – हमारा धर्म चला जाएगा | आठ वर्ष की लड़की के गर्भाधान की जो लोग वैज्ञानिक व्याख्या करते हैं, उनका धर्म कहाँ का धर्म है ?
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