रामप्रसाद 'बिस्मिल' की आत्मकथा - भाग 7
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वृहत् संगठन
यद्यपि मैं अपना निश्चय कर चुका था कि अब इस प्रकार के कार्यों में कोई भाग न लूँगा, तथापि मुझे पुनः क्रान्तिकारी आन्दोलन में हाथ डालना पड़ा, जिसका कारण यह था कि मेरी तृष्णा न बुझी थी, मेरे दिल के अरमान न निकले थे । असहयोग आन्दोलन शिथिल हो चुका था । पूर्ण आशा थी कि जितने देश के नवयुवक उस आन्दोलन में भाग लेते थे, उनमें अधिकतर क्रान्तिकारी आन्दोलन में सहायता देंगे और पूरी लगन से काम करेंगे । जब कार्य आरम्भ हो गया और असहयोगियों को टटोला तो वे आन्दोलन से कहीं अधिक शिथिल हो चुके थे । उनकी आशाओं पर पानी फिर चुका था । निज की पूंजी समाप्त हो चुकी थी । घर में व्रत हो रहे थे । आगे की भी कोई विशेष आशा न थी । कांग्रेस में भी स्वराज्य दल का जोर हो गया था । जिनके पास कुछ धन तथा इष्ट मित्रों का संगठन था, वे कौंसिलों तथा असेंबली के सदस्य बन गये । ऐसी अवस्था में यदि क्रान्तिकारी संगठनकर्ताओं के पास पर्याप्त धन होता तो वे असहयोगियों को हाथ में लेकर उनसे काम ले सकते थे । कितना भी सच्चा काम करने वाला हो, किन्तु पेट तो सबके हैं । दिनभर में थोड़ा सा अन्न क्षुधा निवृत्ति के लिए मिलना परमावश्यक है । फिर शरीर ढ़कने की भी आवश्यकता होती है । अतएव कुछ प्रबन्ध तो ऐसा होना चाहिए, जिसमें नित की आवश्यकताएं पूरी हो जाएं । जितने धनी-मानी स्वदेश-प्रेमी थे उन्होंने असहयोग आन्दोलन में पूर्ण सहायता दी थी । फिर भी कुछ ऐसे कृपालु सज्जन थे, जो थोड़ी-बहुत आर्थिक सहायता देते थे । किन्तु प्रान्त भर के प्रत्येक जिले में संगठन करने का विचार था । पुलिस की दृष्टि से बचाने के लिए भी पूर्ण प्रयत्न करना पड़ता था । ऐसी परिस्थिति में साधारण नियमों को काम में लाते हुए कार्य करना बड़ा कठिन था । अनेक उद्योगों के पश्चात् कुछ भी सफलता न होती थी । दो-चार जिलों में संगठनकर्ता नियत किये गये थे, जिनको कुछ मासिक गुजारा दिया जाता था । पांच-दस महीने तक तो इस प्रकार कार्य चलता रहा । बाद को जो सहायक कुछ आर्थिक सहायता देते थे, उन्होंने भी हाथ खींच लिया । अब हम लोगों की अवस्था बहुत खराब हो गई । सब कार्य-भार मेरे ही ऊपर आ चुका था । कोई भी किसी प्रकार की मदद न देता था । जहां-तहां से पृथक-पृथक जिलों में कार्य करने वाले मासिक व्यय की मांग कर रहे थे । कई मेरे पास आये भी । मैंने कुछ रुपया कर्ज लेकर उन लोगों को एक मास का खर्च दिया । कईयों पर कुछ कर्ज भी हो चुका था । मैं कर्ज न निपटा सका । एक केन्द्र के कार्यकर्त्ता को जब पर्याप्त धन न मिल सका, तो वह कार्य छोड़कर चले गये । मेरे पास क्या प्रबन्ध था, जो मैं उसकी उदर-पूर्ति कर सकता ? अद्भुत समस्या थी ! किसी तरह उन लोगों को समझाया ।
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थोड़े दिनों में क्रान्तिकारी पर्चे आये । सारे देश में निश्चित तिथि पर पर्चे बांटे गये । रंगून, बम्बई, लाहौर, अमृतसर, कलकत्ता तथा बंगाल के मुख्य शहरों तथा संयुक्त प्रान्त के सभी मुख्य-मुख्य जिलों में पर्याप्त संख्या में पर्चों का वितरण हुआ । भारत सरकार बड़ी सशंक हुई कि ऐसी कौन सी और इतनी बड़ी सुसंगठित समिति है, जो एक ही दिन में सारे भारतवर्ष में पर्चे बंट गये ! उसी के बाद मैंने कार्यकारिणी की एक बैठक करके जो केन्द्र खाली हो गया था, उसके लिए एक महाशय को नियुक्त किया । केन्द्र में कुछ परिवर्तन भी हुआ, क्योंकि सरकार के पास संयुक्त प्रान्त के सम्बन्ध में बहुत सी सूचनाएं पहुंच चुकी थीं । भविष्य की कार्य-प्रणाली का निर्णय किया गया ।
कार्यकर्त्ताओं की दुर्दशा
इस समिति के सदस्यों की बड़ी दुर्दशा थी । चने मिलना भी कठिन था । सब पर कुछ न कुछ कर्ज हो गया था । किसी के पास साबुत कपड़े तक न थे । कुछ विद्यार्थी बन कर धर्म क्षेत्रों तक में भोजन कर आते थे । चार-पांच ने अपने-अपने केन्द्र त्याग दिये । पांच सौ से अधिक रुपये मैं कर्ज लेकर व्यय कर चुका था । यह दुर्दशा देख मुझे बड़ा कष्ट होने लगा । मुझसे भी भरपेट भोजन न किया जाता था । सहायता के लिए कुछ सहानुभूति रखने वालों का द्वार खटखटाया, किन्तु कोरा उत्तर मिला । किंकर्त्तव्यविमूढ़ था । कुछ समझ में न आता था । कोमल-हृदय नवयुवक मेरे चारों ओर बैठकर कहा करते, "पण्डित जी, अब क्या करें?" मैं उनके सूखे-सूखे मुख देख बहुधा रो पड़ता कि स्वदेश सेवा का व्रत लेने के कारण फकीरों से भी बुरी दशा हो रही है ! एक एक कुर्ता तथा धोती भी ऐसी नहीं थी जो साबुत होती । लंगोट बांध कर दिन व्यतीत करते थे । अंगोछे पहनकर नहाते थे, एक समय क्षेत्र में भोजन करते थे, एक समय दो-दो पैसे के सत्तू खाते थे । मैं पन्द्रह वर्ष से एक समय दूध पीता था । इन लोगों की यह दशा देखकर मुझे दूध पीने का साहस न होता था । मैं भी सबके साथ बैठ कर सत्तू खा लेता था । मैंने विचार किया कि इतने नवयुवकों के जीवन को नष्ट करके उन्हें कहां भेजा जाये । जब समिति का सदस्य बनाया था, तो लोगों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बधाई थीं । कईयों का पढ़ना-लिखना छुड़ा कर इस काम में लगा दिया था । पहले से मुझे यह हालत मालूम होती तो मैं कदापि इस प्रकार की समिति में योग न देता । बुरा फँसा । क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता था । अन्त में धैर्य धारण कर दृढ़तापूर्वक कार्य करने का निश्चय किया ।
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इसी बीच में बंगाल आर्डिनेंस निकला और गिरफ्तारियां हुईं । इनकी गिरफ्तारी ने यहां तक असर डाला कि कार्यकर्ताओं में निष्क्रियता के भाव आ गये । क्या प्रबन्ध किया जाये, कुछ निर्णय नहीं कर सके । मैंने प्रयत्न किया कि किसी तरह एक सौ रुपया मासिक का कहीं से प्रबन्ध हो जाए । प्रत्येक केन्द्र के प्रतिनिधि से हर प्रकार से प्रार्थना की थी कि समिति के सदस्यों से कुछ सहायता लें, मासिक चन्दा वसूल करें पर किसी ने कुछ न सुनी । कुछ सज्जनों ने व्यक्तिगत प्रार्थना की कि वे अपने वेतन में से कुछ मासिक दे दिया करें । किसी ने कुछ ध्यान न दिया । सदस्य रोज मेरे द्वार पर खड़े रहते थे । पत्रों की भरमार थी कि कुछ धन का प्रबन्ध कीजिए, भूखों मर रहे हैं । दो एक को व्यवसाय में लगाने का इन्तजाम भी किया । दो चार जिलों में काम बन्द कर दिया, वहां के कार्यकर्ताओं से स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि हम मासिक शुल्क नहीं दे सकते । यदि निर्वाह का कोई दूसरा मार्ग हो, और उस ही पर निर्भर रह कर कार्य कर सकते हो तो करो । हमसे जिस समय हो सकेगा देंगे, किन्तु मासिक वेतन देने के लिए हम बाध्य नहीं । कोई बीस रुपये कर्ज के मांगता था, कोई पचास का बिल भेजता था, और कईयों ने असन्तुष्ट होकर कार्य छोड़ दिया । मैंने भी समझ लिया - ठीक ही है, पर इतना करने पर भी गुजर न हो सकी ।
अशान्त युवक दल
कुछ महानुभावों की प्रकृति होती है कि अपनी कुछ शान जमाना या अपने आप को बड़ा दिखाना अपना कर्त्तव्य समझते हैं, जिससे भयंकर हानियां हो जाती हैं । भोले-भाले आदमी ऐसे मनुष्यों में विश्वास करके उनमें आशातीत साहस, योग्यता तथा कार्यदक्षता की आशा करके उन पर श्रद्धा रखते हैं । किन्तु समय आने पर यह निराशा के रूप में परिणित हो जाती है । इस प्रकार के मनुष्यों की किन्हीं कारणों वश यदि प्रतिष्ठा हो गई, अथवा अनुकूल परिस्थितियों के उपस्थित हो जाने से उन्होंने किसी उच्च कार्य में योग दे दिया, तब तो फिर वे अपने आपको बड़ा भारी कार्यकर्त्ता जाहिर करते हैं । जनसाधारण भी अन्धविश्वास से उनकी बातों पर विश्वास कर लेते हैं । विशेषकर नवयुवक तो इस प्रकार के मनुष्यों के जाल में शीघ्र ही फंस जाते हैं । ऐसे ही लोग नेतागिरी की धुन में अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग पकाया करते हैं । इसी कारण पृथक-पृथक दलों का निर्माण होता है । इस प्रकार के मनुष्य प्रत्येक समाज तथा प्रत्येक जाति में पाये जाते हैं । इनसे क्रान्तिकारी दल भी मुक्त नहीं रह सकता । नवयुवकों का स्वभाव चंचल होता है, वे शान्त रहकर संगठित कार्य करना बड़ा दुष्कर समझते हैं । उनके हृदय में उत्साह की उमंगें उठती हैं । वे समझते हैं दो चार अस्त्र हाथ आये कि हमने गवर्नमेंट को नाकों चने चबवा दिए । मैं भी जब क्रान्तिकारी दल में योग देने का विचार कर रहा था, उस समय मेरी उत्कण्ठा थी कि यदि एक रिवाल्वर मिल जाये तो दस बीस अंग्रेजों को मार दूं । इसी प्रकार के भाव मैंने कई नवयुवकों में देखे । उनकी बड़ी प्रबल हार्दिक इच्छा होती है कि किसी प्रकार एक रिवाल्वर या पिस्तौल उनके हाथ लग जाये तो वे उसे अपने पास रख लें । मैंने उनसे रिवाल्वर पास रखने का लाभ पूछा, तो कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सके । कई नवयुवकों को मैंने इस शौक को पूरा करने में सैंकड़ों रुपये बरबाद करते भी देखा है । किसी क्रान्तिकारी आन्दोलन के सदस्य नहीं, कोई विशेष कार्य भी नहीं, महज शौकिया रिवाल्वर पास रखेंगे । ऐसे ही थोड़े से युवकों का एक दल एक महोदय ने भी एकत्रित किया । वे सब बड़े सच्चरित्र, स्वाभिमानी और सच्चे कार्यकर्त्ता थे । इस दल ने विदेश से अस्त्र प्राप्त करने का बड़ा उत्तम सूत्र प्राप्त किया था, जिससे यथारुचि पर्याप्त अस्त्र मिल सकते थे । उन अस्त्रों के दाम भी अधिक न थे । अस्त्र भी पर्याप्त संख्या में बिलकुल नये मिलते थे । यहां तक प्रबन्ध हो गया था कि हम लोग रुपये का उचित प्रबन्ध कर देंगे, और यथा समय मूल्य निपटा दिया करेंगे, तो हमको माल उधार भी मिल जाया करेगा और हमें जब किसी प्रकार के जितनी संख्या में अस्त्रों की आवश्यकता होगी, मिल जाया करेंगे । यही नहीं, समय आने पर हम विशेष प्रकार की मशीन वाली बन्दूकें भी बनवा सकेंगे । इस समय समिति की आर्थिक अवस्था बड़ी खराब थी । इस सूत्र के हाथ लग जाने और इसके लाभ उठाने की इच्छा होने पर भी बिना रुपये के कुछ होता दिखलाई न पड़ता था । रुपये का प्रबन्ध करना नितान्त आवश्यक था । किन्तु वह हो कैसे ? दान कोई न देता था । कर्ज भी न मिलता था, और कोई उपाय न देख डाका डालना तय हुआ । किन्तु किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति (private property) पर डाका डालना हमें अभीष्ट न था । सोचा, यदि लूटना है तो सरकारी माल क्यों न लूटा जाये ? इसी उधेड़बुन में एक दिन मैं रेल में जा रहा था । गार्ड के डिब्बे के पास गाड़ी में बैठा था । स्टेशन मास्टर एक थैली लाया, और गार्ड के डिब्बे में डाल दिया । कुछ खटपट की आवाज हुई । मैंने उतर कर देखा कि एक लोहे का सन्दूक रखा है । विचार किया कि इसी में थैली डाली होगी । अगले स्टेशन पर उसमें थैली डालते भी देखा । अनुमान किया कि लोहे का सन्दूक गार्ड के डिब्बे में जंजीर से बंधा रहता होगा, ताला पड़ा रहता होगा, आवश्यकता होने पर ताला खोलकर उतार लेते होंगे । इसके थोड़े दिनों बाद लखनऊ स्टेशन पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ । देखा एक गाड़ी में से कुली लोहे के, आमदनी वाले सन्दूक उतार रहे हैं । निरीक्षण करने से मालूम हुआ कि उसमें जंजीरें ताला कुछ नहीं पड़ता, यों ही रखे जाते हैं । उसी समय निश्चय किया कि इसी पर हाथ मारूंगा ।
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उसी समय से धुन सवार हुई । तुरन्त स्थान पर जो टाइम टेबल देखकर अनुमान किया कि सहारनपुर से गाड़ी चलती है, लखनऊ तक अवश्य दस हजार रुपये की आमदनी होती होगी । सब बातें ठीक करके कार्यकर्ताओं का संग्रह किया । दस नवयुवकों को लेकर विचार किया कि किसी छोटे स्टेशन पर जब गाड़ी खड़ी हो, स्टेशन के तारघर पर अधिकार कर लें, और गाड़ी का सन्दूक उतार कर तोड़ डालें, जो कुछ मिले उसे लेकर चल दें । परन्तु इस कार्य में मनुष्यों की अधिक संख्या की आवश्यकता थी । इस कारण यही निश्चय किया गया कि गाड़ी की जंजीर खींचकर चलती गाड़ी को खड़ा करके तब लूटा जाये । सम्भव है कि तीसरे दर्जे की जंजीर खींचने से गाड़ी न खड़ी हो, क्योंकि तीसरे दर्जे में बहुधा प्रबन्ध ठीक नहीं रहता है । इस कारण से दूसरे दर्जे की जंजीर खींचने का प्रबन्ध किया गया । सब लोग उसी ट्रेन में सवार थे । गाड़ी खड़ी होने पर सब उतरकर गार्ड के डिब्बे के पास पहुंच गये । लोहे का सन्दूक उतारकर छेनियों से काटना चाहा, छेनियों ने काम न दिया, तब कुल्हाड़ा चला ।
मुसाफिरों से कह दिया कि सब गाड़ी में चढ़ जाओ । गाड़ी का गार्ड गाड़ी में चढ़ना चाहता था, पर उसे जमीन पर लेट जाने की आज्ञा दी, ताकि बिना गार्ड के गाड़ी न जा सके । दो आदमियों को नियुक्त किया कि वे लाइन की पगडण्डी को छोड़कर घास में खड़े होकर गाड़ी से हटे हुए गोली चलाते रहें । एक सज्जन गार्ड के डिब्बे से उतरा । उनके पास भी माउजर पिस्तौल था । विचारा कि ऐसा शुभ अवसर जाने कब हाथ आए । माउजर पिस्तौल काहे को चलाने को मिलेगा? उमंग जो आई, सीधी करके दागने लगे । मैंने जो देखा तो डांटा, क्योंकि गोली चलाने की उनकी ड्यूटी (काम) ही न थी । फिर यदि कोई मुसाफिर कौतुहलवश बाहर को सिर निकाले तो उसके गोली जरूर लग जाये ! हुआ भी ऐसा ही । जो व्यक्ति रेल से उतरकर अपनी स्त्री के पास जा रहा था, मेरा ख्याल है कि इन्हीं महाशय की गोली उसके लग गई, क्योंकि जिस समय यह महाशय सन्दूक नीचे डालकर गार्ड के डिब्बे से उतरे थे, केवल दो तीन फायर हुए थे । उसी समय स्त्री ने कोलाहल किया होगा और उसका पति उसके पास जा रहा था, जो उक्त महाशय की उमंग का शिकार हो गया ! मैंने यथाशक्ति पूर्ण प्रबन्ध किया था कि जब तक कोई बन्दूक लेकर सामना करने न आये, या मुकाबले में गोली न चले तब तक किसी आदमी पर फायर न होने पाए । मैं नर-हत्या कराके डकैती को भीषण रूप देना नहीं चाहता था । फिर भी मेरा कहा न मानकर अपना काम छोड़ गोली चला देने का यह परिणाम हुआ ! गोली चलाने की ड्यूटी जिनको मैंने दी थी वे बड़े दक्ष तथा अनुभवी मनुष्य थे, उनसे भूल होना असम्भव है । उन लोगों को मैंने देखा कि वे अपने स्थान से पांच मिनट बाद फायर करते थे । यही मेरा आदेश था ।
सन्दूक तोड़ तीन गठरियों में थैलियां बांधी । सबसे कई बार कहा, देख लो कोई सामान रह तो नहीं गया, इस पर भी एक महाशय चद्दर डाल आए ! रास्ते में थैलियों से रुपया निकालकर गठरी बांधी और उसी समय लखनऊ शहर में जा पहुंचे । किसी ने पूछा भी नहीं, कौन हो, कहाँ से आये हो ? इस प्रकार दस आदमियों ने एक गाड़ी को रोककर लूट लिया । उस गाड़ी में चौदह मनुष्य ऐसे थे, जिनके पास बन्दूकें या राइफलें थीं । दो अंग्रेज सशस्त्र फौजी जवान भी थे, पर सब शान्त रहे । ड्राइवर महाशय तथा एक इंजीनियर महाशय दोनों का बुरा हाल था । वे दोनों अंग्रेज थे । ड्राइवर महाशय इंजन में लेटे रहे । इंजीनियर महाशय पाखाने में जा छुपे ! हमने कह दिया था कि मुसाफिरों से न बोलेंगे । सरकार का माल लूटेंगे । इस कारण मुसाफिर भी शान्तिपूर्वक बैठे रहे । समझे तीस-चालीस आदमियों ने गाड़ी को चारों ओर से घेर लिया है । केवल दस युवकों ने इतना बड़ा आतंक फैला दिया । साधारणतः इस बात पर बहुत से मनुष्य विश्वास करने में भी संकोच करेंगे कि दस नवयुवकों ने गाड़ी खड़ी करके लूट ली । जो भी हो, वास्तव में बात यही थी । इन दस कार्यकर्ताओं में अधिकतर तो ऐसे थे जो आयु में सिर्फ लगभग बाईस वर्ष के होंगे और जो शरीर से बड़े पुष्ट न थे । इस सफलता को देखकर मेरा साहस बढ़ गया । मेरा जो विचार था, वह अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ । पुलिस वालों की वीरता का मुझे अन्दाजा था । इस घटना से भविष्य के कार्य की बहुत बड़ी आशा बन्ध गई । नवयुवकों में भी उत्साह बढ़ गया । जितना कर्जा था निपटा दिया । अस्त्रों की खरीद के लिए लगभग एक हजार रुपये भेज दिये । प्रत्येक केन्द्र के कार्यकर्ताओं को यथास्थान भेजकर दूसरे प्रान्तों में भी कार्य-विस्तार करने का निर्णय करके कुछ प्रबन्ध किया । एक युवकदल ने बम बनाने का प्रबन्ध किया, मुझसे भी सहायता चाही । मैंने आर्थिक सहायता देकर अपना एक सदस्य भेजने का वचन दिया । किन्तु कुछ त्रुटियां हुईं जिससे सम्पूर्ण दल अस्त-व्यस्त हो गया ।
मैं इस विषय में कुछ भी न जान सका कि दूसरे देश के क्रान्तिकारियों ने प्रारम्भिक अवस्था में हम लोगों की भांति प्रयत्न किया या नहीं । यदि पर्याप्त अनुभव होता तो इतनी साधारण भूलें न करते । त्रुटियों के होते हुए भी कुछ न बिगड़ता और न कुछ भेद खुलता, न इस अवस्था को पहुंचते, क्योंकि मैंने जो संगठन किया था उसमें किसी ओर से मुझे कमजोरी न दिखाई देती थी । कोई भी किसी प्रकार की त्रुटि न समझ सकता था । इसी कारण आंख बन्द किये बैठे रहे । किन्तु आस्तीन में सांप छिपा हुआ था, ऐसा गहरा मुंह मारा कि चारों खानों चित्त कर दिया !
जिन्हें हम हार समझे थे गला अपना सजाने को,
वही अब नाग बन बैठे हमारे काट खाने को !
नवयुवकों में आपस की होड़ के कारण बहुत वितण्डा तथा कलह भी हो जाती थी, जो भयंकर रूप धारण कर लेती । मेरे पास जब मामला आता तो मैं प्रेम-पूर्वक समिति की दशा का अवलोकन कराके, सबको शान्त कर देता । कभी नेतृत्व को लेकर वाद-विवाद चल जाता । एक केन्द्र के निरीक्षक के वहाँ कार्यकर्त्ता अत्यन्त असन्तुष्ट थे । क्योंकि निरीक्षक से अनुभवहीनता के कारण कुछ भूलें हो गई थीं । यह अवस्था देख मुझे बड़ा खेद तथा आश्चर्य हुआ, क्योंकि नेतागिरि का भूत सबसे भयानक होता है । जिस समय से यह भूत खोपड़ी पर सवार होता है, उसी समय से सब काम चौपट हो जाता है । केवल एक दूसरे को दोष देखने में समय व्यतीत होता है और वैमनस्य बढ़कर बड़े भयंकर परिणामों का उत्पादक होता है । इस प्रकार के समाचार सुन मैंने सबको एकत्रित कर खूब फटकारा । सब अपनी त्रुटि समझकर पछताए और प्रीतिपूर्वक आपस में मिलकर कार्य करने लगे । पर ऐसी अवस्था हो गई थी कि दलबन्दी की नौबत आ गई थी । इस प्रकार से तो दलबन्दी हो ही गई थी । पर मुझ पर सब की श्रद्धा थी और मेरे वक्तव्य को सब मान लेते थे । सब कुछ होने पर भी मुझे किसी ओर से किसी प्रकार का सन्देह न था । किन्तु परमात्मा को ऐसा ही स्वीकार था, जो इस अवस्था का दर्शन करना पड़ा ।
गिरफ्तारी
जिन्हें हम हार समझे थे गला अपना सजाने को,
वही अब नाग बन बैठे हमारे काट खाने को !
काकोरी डकैती होने के बाद से ही पुलिस बहुत सचेत हुई । बड़े जोरों के साथ जांच आरम्भ हो गई । शाहजहांपुर में कुछ नई मूर्तियों के दर्शन हुए । पुलिस के कुछ विशेष सदस्य मुझ से भी मिले । चारों ओर शहर में यही चर्चा थी कि रेलवे डकैती किसने कर ली ? उन्हीं दिनों शहर में डकैती के एक दो नोट निकल आये, अब तो पुलिस का अनुसंधान और भी बढ़ने लगा । कई मित्रों ने मुझसे कहा भी कि सतर्क रहो । दो एक सज्जनों ने निश्चितरूपेण समाचार दिया कि मेरी गिरफ्तारी जरूर हो जाएगी । मेरी समझ में कुछ न आया । मैंने विचार किया कि यदि गिरफ्तारी हो भी गई तो पुलिस को मेरे विरुद्ध कुछ भी प्रमाण न मिल सकेगा । अपनी बुद्धिमत्ता पर कुछ अधिक विश्वास था । अपनी बुद्धि के सामने दूसरों की बुद्धि को तुच्छ समझता था । कुछ यह भी विचार था कि देश की सहानुभूति की परीक्षा की जाए । जिस देश पर हम अपना बलिदान देने को उपस्थित हैं, उस देश के वासी हमारे साथ कितनी सहानुभूति रखते हैं ? कुछ जेल का अनुभव भी प्राप्त करना था । वास्तव में, मैं काम करते करते थक गया था । भविष्य के कार्यों में अधिक नर हत्या का ध्यान करके मैं हतबुद्धि सा हो गया था । मैंने किसी के कहने की कोई भी चिन्ता न की ।
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