“मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय) भाग – ४
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गतांक से आगे ....
उपसंहार रूप में समस्त जगत की उत्पत्ति का वर्णन –
कर्मात्मनां च देवानां ..............................................सनातनम ||२२|| (१४)
उस परमात्मा ने कर्म ही स्वभाव है जिनका ऐसे सूर्य,अग्नि,वायु आदि देवों के मनुष्य,पशु पक्षी,आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदाय को तथा सृष्टि उत्पत्ति काल से प्रलय काल तक निरंतर प्रवाह मान सूक्ष्म संसार अर्थात महत्त अहंकार पंचतन्मात्रा आदि सूक्ष्म रूपमय और सूक्ष्म शक्तियों से युक्त संसार को रचा ||२२||
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अनुशीलन –
(१) २२वें श्लोक का संगत अर्थ –
कुल्लुकभट्ट आदि टीकाकारों ने ‘साध्य’ का अर्थ ‘सूक्ष्मम्’ विश्लेषण को उसके साथ जोड़कर ‘सूक्ष्म देवयोनी-विशेष’ किया है ! यह मिथ्या कल्पना मात्र है, क्यूंकि मनुष्यों से भिन्न कोई देव योनी जगत में नहीं होती ! १|४३-४९ श्लोकों में मनु ने सभी योनिगत प्राणियों का दिग्दर्शन कराया है ! उनमे ऐसी कोई योनी उल्लेखित नहीं है ! इस प्रकार की कल्पना मनु के उक्त श्लोकों के विरुद्ध जाती है ! वस्तुतः, मनुस्मृति में जहाँ कहीं भी प्राणियों में देव,ऋषि,पितर आदि का उल्लेख आता है, वे मनुष्यों के स्तरविशेष है ! योग्यता एवं स्तरविशेषानुसार ये मनुष्यों की ही संज्ञाएं है !
(२) यज्ञ का व्यापक अर्थ, वेदों का उद्देश्य –
इसी प्रकार प्रचलित टीकाओं में किया गया यज्ञ का अर्थ भी संकुचित है ! इस श्लोक में यज्ञ शब्द का ‘हवन’ यह सीमित अर्थ न होकर व्यापक अर्थ ‘जगत’ है ! इसकी पुष्टि में निम्न युक्तियाँ दी जा सकती है –
मनु ने केवल होम सम्पादन के लिए ही वेदों की उत्पत्ति नहीं स्वीकार की है अपितु संसार के समस्त ज्ञान विज्ञान, धर्म, व्यवहार आदि की सिद्धि के लिए वेदों की उत्पत्ति मानी है ! मनु स्मृति में अनेक स्थलों पर उन्होंने ऐसे आशय दिए है ! कुछ प्रमाणों से यह बात पुष्ट हो जायेगी –
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(अ) १२|९७ में चारों वर्णों, आश्रमों एवं तीनों कालों का ज्ञान वेदों से ही माना जाता है !
(आ) शब्द, स्पर्श आदि सूक्ष्म शक्तियों की वैज्ञानिक सिद्धि वेदों द्वारा ही मानी है ! (१२|९८)
(इ) संसार के समस्त व्यवहारों का सर्वोत्तम साधक ग्रन्थ वेद को कहा है ! (१२|९९)
(ई) १२|९४ में वेद को पितु, देव, मनुष्यों का ‘चक्षु’ अर्थात धर्म-अधर्म, ज्ञान-विज्ञान आदि का दर्शानेवाला कहा है !
(उ) इसी प्रकार राजनीति की शिक्षा देने वाला (७|४३;१२|१००) शास्त्र भी वेद ही है !
(ऊ) वेद सभी धर्मों का स्त्रोत एवं आधार है ! (२|६-१५)
(ए) १|२१ में वेदों के द्वारा ही संसार के समस्त पदार्थों का नामकरण, विभाग, कर्म निर्धारण, यह सिद्ध करता है कि उत्पत्ति केवल होम सम्पादन के लिए ही नहीं अपितु जगत के समस्त सिद्धियाँ प्राप्त करने के लिए है !
(ऐ) १|३ में वेदों को सब सत्यविद्याओं का विधान करने वाला ग्रन्थ कहना, अथवा जगत का संविधान और समस्त व्यवहारों का साधक ग्रन्थ कहना भी वेदों की उपयोगिता को व्यापक सिद्ध करता है !
इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेदों की उपयोगिता के विषय में मनु की व्यापक दृष्टी है, यदि उसे केवल होम तक ही सीमित किया जाएगा तो उक्त मान्यताओं से उसका विरोध आयेगा !
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वेदों का आविर्भाव –
अग्निवायुरविभ्यस्तु............................................सामलक्षणम ||२३|| (१५)
उस परमात्मा ने जगत में समस्त धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष आदि व्यवहारों की सिद्धि के लिए अथवा जगत की सिद्धि अर्थात जगत के समस्त रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि,वायु और रवि से अर्थात उनके माध्यम से वेदों को दुहकर प्रकट किया ||२३||
(प्रचलित अर्थ- उस ब्रह्मा ने यज्ञों की सिद्धि के लिए अग्नि,वायु और सूर्य से नित्य ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को क्रमशः प्रकट किया ||२३||)
“जिस परमात्मा ने आदि श्रुष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा से ऋग्यजु. साम और अथर्व का ग्रहण किया ! (स.प्र.२०३)
अग्निवायुरविभ्यस्तु............................................सामलक्षणम ||२३|| (१५)
उस परमात्मा ने जगत में समस्त धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष आदि व्यवहारों की सिद्धि के लिए अथवा जगत की सिद्धि अर्थात जगत के समस्त रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि,वायु और रवि से अर्थात उनके माध्यम से वेदों को दुहकर प्रकट किया ||२३||
(प्रचलित अर्थ- उस ब्रह्मा ने यज्ञों की सिद्धि के लिए अग्नि,वायु और सूर्य से नित्य ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद को क्रमशः प्रकट किया ||२३||)
“जिस परमात्मा ने आदि श्रुष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगीरा से ऋग्यजु. साम और अथर्व का ग्रहण किया ! (स.प्र.२०३)
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अनुशीलन –
(१) प्रस्तुत श्लोक में यज्ञ शब्द का ‘जगत’ अर्थ है ! इसकी पुष्टि के लिए १|२२ की समीक्षा देखिये |
(२) वेदोत्पत्ति विषयक वेदादि के प्रमाण – महर्षि मनु ने अपनी स्मृति का मूल्स्त्रोत वेद को माना है ! वे वेदों को अपौरुषेय मानकर इस श्लोक में परमेश्वर से ही वेदोत्पत्ति मानते है ! मनु ने यह मान्यता वेदों से ही ग्रहण की है ! देखिये स्वयं वेद भी इस मान्यता को वर्णित कर रहे है –
(१) प्रस्तुत श्लोक में यज्ञ शब्द का ‘जगत’ अर्थ है ! इसकी पुष्टि के लिए १|२२ की समीक्षा देखिये |
(२) वेदोत्पत्ति विषयक वेदादि के प्रमाण – महर्षि मनु ने अपनी स्मृति का मूल्स्त्रोत वेद को माना है ! वे वेदों को अपौरुषेय मानकर इस श्लोक में परमेश्वर से ही वेदोत्पत्ति मानते है ! मनु ने यह मान्यता वेदों से ही ग्रहण की है ! देखिये स्वयं वेद भी इस मान्यता को वर्णित कर रहे है –
तस्माद यज्ञात सर्वहुतः ऋच: सामानि जज्ञिर |
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यजुस्तस्मादजायत || (यजु. ३१|७)
अर्थ – उस सच्चिदानंद स्वरुप, सब स्थानों से परिपूर्ण, जो सब मनुष्यों द्वारा उपास्य और सब सामर्थ्य से युक्त है उस परम्ब्रह्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और छन्दांसि = अथर्ववेद यह चारों वेद उत्पन्न हुए है !
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छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यजुस्तस्मादजायत || (यजु. ३१|७)
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